संगणककी व्याख्या हम कर सकते हैं -- निर्देश के अनुसार उपलब्ध जानकारीकी जाँच और प्रोसेसिंगसे निष्कर्ष बता सकनेवाला यंत्र. दुनियाभरमें मान्य इस व्याख्या को मानें तो पुरातन कालके सरल जोड-घटा कर सकनेवाले यंत्र भी संगणक कहाएंगे। लेकिन अंकोंकी द्विअंश पद्धति का उपयोग कर इलेक्ट्रॉनिक उपकरणांकी सहायतासे बने संगणकका विकास 1945 के आसपास आरंभ हुआ। उन संगणकोंमें आजकी तुलनामें सौगुनी अधिक बिजली (पॉवर) आणि हजारगुनी अधिक जगह की आवश्यकता होती थी।
वैज्ञानिकों और इंजिनियरोंने जब संगणक बनाना और उसपर काम करना आरंभ किया तो प्रत्येक टीम या संस्थाका संगणक उन्होंने अपने अपने तरीके और आवश्यकता के अनुरूप बनाया। उसमें बाहरी डिब्बे या आवरणकी भी जरूरत नही थी। अलग अलग PCB सर्किट्स, बडे बडे ट्रायोड वाल्व्ह, और उन्हें चाहे जैसे जोड दो बस। मुख्य मुद्दा था उनसे काम करवानेका। लेकिन इलेक्ट्रॉनिक्समें सेमीकण्डक्टर और इंटिग्रेटेड सर्किटके शोधके बाद संगणकोंमें बिजली और जगह दोनोंकी जरूरत हजारों गुना कम हो गई।
फिर 1980 के आसपास किसी समय IBM कंपनीके विचारमें आया कि संगणक बनानेकी फॅक्टरी खोलकर उसकी बडे पैमानेपर विक्री की जा सकती है। इसके लिये केवल एक आवश्यक मुद्दा है -- स्टॅण्डर्डायझेशन। अगर संगणककी जड-वस्तूंओंको प्रमाणबध्द (हार्डवेअर स्टॅण्डर्डायझेशन) किया जाय तो फॅक्टरी चल निकलेगी। IBM ने ऐसे प्रमाणक (स्टॅण्डर्डस) तय किये। एक अमुक आकारमेंही मदरबोर्ड होगा, उसपर अमुक आकारकी हार्डडिस्क लगेगी और वह अमुक प्रकारके पिनोंसे जोडी जायगी - केबल्स अमुक प्रकारकी होंगी और प्लग, सॉकेट्स अमुक प्रकारके - वगैरा। देखा जाय तो संगणकमें ऐसी जड-वस्तुएँ अधिक नही होती। उनके लिये प्रमाणक तय करना और बडे पैमानेपर उत्पादन करना एक अच्छी संभावना थी और IBM को इस नीतिमें सफलता मिली।
IBM ने किस किस जडवस्तूका प्रमाणीकरण किया --
1) कारभारी डबा तथा मॉनिटरमें पॉवर सप्लाय करनेवाली केबल्स
2) माऊस व की-बोर्ड जोडनेवाली वायर्स, उनके प्लग-सॉकेटस
3) मॉनिटर व कारभारी डिब्बेको एकदूसरेसे जोडनेवाली वायर्स,प्लग-सॉकेट्स
4) कारभारी डिब्बेके अंदर मदर बोर्ड
5) मदर बोर्डपर फिट होनेवाली हार्ड-डिस्क, रॅम, प्रोसेसर चिप, सभीके आकार व जोडनेवाले स्क्रू या पिन्स।
6) कारभारी डिब्बेके अंदर सारी केबल्समें एकसाथ सोलह सिग्नल्स ले जानेवाली वायर्स होती हैं जिन्हें बस (bus) कहते हैं -- उन्हें भी प्रमाणीभूत किया
7) मायक्रोफोन व लाऊडस्पीकर जोडनेवाले प्लग, सॉकेटस
8) सीडी और फ्लॉपी ड्राइव्ह अर्थात कारभारी डिब्बेपर फ्लॉपी या CD डालनेकी नीयत जगह और उनपर लिखी बातें या फाइलें पढनेवाली यंत्रणा
9) नये आविष्कारोंमें पेनड्राईव्ह, इंटरनेटके लिये वाय-फाय कार्ड आदि अलग अलग उपकरणं बन रहे हैं, उन्हे जोडने के प्लग-सॉकेट्स
वगैरा-वगैरा.....
IBM ने ऐसे प्रमाणक (स्टॅण्डर्डस) तय किये और उन्हें प्रसिद्ध कर दिया -- छोटे पार्ट्स बनानेवाली कंपनियोंको बता दिया कि उक्त स्टण्डर्डके अनुसार बने पार्ट्स ही खरीदेंगे। इससे ये हुआ कि बाकी कंपनियोंनेभी इसी प्रमाणक के अनुरूप उपकरण बनाये और उन्हें IBM compatible नाम पडा। फिर ये कंपनियाँ भी ग्राहकोंको कहने लगी कि आप हमारे संगणक खरीदो, इनके स्पेअर पार्टस् कहींभी मिल जायेंगे - और सबसे बडी बात कि ये प्रमाणभूत होंगे अतः एकसे निकालकर दूसरेपर लगाये जा सकेंगे या खराब होनेपर उन्हें बदलना सरल होगा।
इस प्रकार प्रमाणभूत करना, फॅक्टरी के तरीकेसे असेंब्ली-लाइन बनाकर उत्पादन करना, विक्री का प्रबंधन आदि सब उपायोंसे संगणकका व्यापार बढने लगा और उनकी कीमतें घटाना भी संभव हुआ।
एक ओर यह बाहरी पार्ट्सका प्रमाणीकरण हो रहा था तो दूसरी ओर अंदरूनी पार्ट्स भी विकसित हो रहे थे। संगणकमें इंटिग्रेटेड सर्किट की जगह मायक्रोप्रोसेसर चिप बनने लगीं जो एक बहुत ही प्रगतिशील शोध था जिससे संगणकका विकास कई सीढियाँ आगे चढ गया। कारण अंकोंके प्रोसेसिंग करनेकी चिपकी गति कई गुना बढ गई। यूँ तो अधिक गति दे सके ऐसे एक एक मायक्रोप्रोसेसरका डिझाइन बनानेके रिसर्चमें लाखो डॉलर्सका खर्च होता है लेकिन फिर संगणकके कामकी गतिभी कई गुना बढ जाती है। उधर हार्ड डिस्ककी संग्राहक क्षमता बढानेकी दिशामें दूसरे शोध हो रहे थे। विकासकी तिसरी दिशा सॉफ्टवेअर में थी।
पहले संगणकको छोटेसे छोटा निर्देश देनेके लिये भी संगणककी विशिष्ट भाषामें सीढी-दर-सीढी एक-एक निर्देश लिखकर संगणकको बताये जाते। कोई निर्देश गलत हुआ तो संगणक ठप्प हो जायगा, फिर एक-एक निर्देशकी जाँच करते हुए खोज निकालो कि कहाँ गलती हुई। यह पूरी प्रक्रिया काफी सर खपानेवाली होती थी। संगणककी विशिष्ट भाषा जैसे बेसिक, कोबोल, फोरट्रॉन इत्यादी सीखनी पडती थीं। तभी कोई प्रोग्रामिंग तज्ज्ञ हो सकता था । उच्च कोटिके तज्ज्ञ वो थे जो एक नई सुगम भाषा ही विकसित कर सकें। पर ऐसे बहुत कम थे।
सॉफ्टवेअरके विकासमें कुञ्जीपटलसे माध्यमसे मानवी भाषाको विवेचक (प्रोसेसर) तक पहुँचाना, उस संदेशका मशीनी भाषामें लिखा जाना, हार्डडिस्कमें उनका संग्रह होना, निर्देशके मुताबिक उनपर प्रक्रिया होना, फिरसे मानवी भाषामें रूपान्तर होना ताकि हम-आप इसे समझ सकें -- ऐसे पाँच पडाव हैं।
इन सबका मुल आधार है बायनरी सिम्बॉल्स जो संगणकके बायॉसमें होते हैं। और अगली कडियाँ हैं मशीन लँग्वेज या असेम्ब्लर, जिसे प्रोसेसर समझ सकता है। उसके आगे कम्पायलर, और उसके आगे प्रोग्रामिंग लँग्वेज, फिर खुद प्रोग्राम, और अंततः प्रोग्रामका उपयोग कर किया गया काम -- ये सब हार्डडिस्कमें संग्रहित किया जाते है। कामकी फाइलको हम बार बार खोलकर प्रयोगमें ला सकते हं।
हम एक मजेदार उदाहरण देखेंगे। अपनी कल्पनामें देखो एक कमरा, उसमें रखे गये लुहारके औजार, एक लेथ मशीन, उसकी सहायतासे बनाया एक चाकू, और एक पपीता। कमरा है इसलिये बाकी सामान रखनेकी सुविधा हुई। संगणककी ऑपरेटिंग सिस्टम यह सुविधा मुहैया कराती है लेकिन यह न भूलो कि औजार थे इसीलिये कमरा बनाया जा सका। औजार थे तो लेथ मशीन बन सकी। फिर लेथ मशीनके इस्तेमालसे चाकू बनाया और उसके इस्तेमालसे पपीता काटा। यदि अपने पास केवल एक कमरा और उसमें रखा चाकू और पपीता ही है तो चाकूसे हम पपीता काट सकते हैं, लेकिन कलको कोई नारियल ले आये और उसे तोडनेके लिये हथोडा चाहिये हो, तो कमरेमें या तो हथोडा रखा होना चाहिये या फिर लेथ मशीन ताकि हम हथोडा बना सकें और फिर नारियल तोड सकें। विण्डोज और लीनक्स ऑपरेटिंग सिस्टममें यह अंतर है। लीनक्समें प्रोग्रामिंगके लिये आवश्यक कई उपकरण (कम्पायलर्स ???) सिस्टमके साथही होते हैं जो हम उपयोग में ला सकते हैं।
तसेच ठराविक कामांचे प्रोग्राम व त्यांच्या निर्देशांची भाषा - प्रोग्रामिंग लँग्वेज असते. केलेले कामही मानवी भाषेच्या रूपाने दिसणार असते.
थोडेमें, संगणकको दिये जानेवाले सारे निर्देश मानवी भाषामें ही दिये जा सकता हैं। लेकिन उपर्युक्त उदाहरणसे समझमें आता है कि मोटामोटी इन निर्देशोंके तीन प्रकार होते हैं। ऑपरेटिंग सिस्टमके निर्देश, प्रोग्रॅमके निर्देश, और प्रत्यक्ष कामके लिये दिये जानेवाले निर्देश।
इनमे ऑपरेटिंग सिस्टमके विकासका मुद्दा इतना महत्वपूर्ण है कि डॉस तथा विण्डोज ऑपरेटिंग सिस्टमका जनक बिल गेट पिछले कई वर्षोंसे दुनियाका सबसे अमीर व्यक्ति रहा है और उसकी कंपनी मायक्रोसॉफ्टभी बुलंदीपर है।
एकसे एक प्रगत मायक्रोप्रोसेसर चिप का इस्तेमाल कर मायक्रोसॉफट कंपनीने सॉफ्टवेअरकी दुनियामें उंची उडान भरी और संगणकके कामको एक प्रकारसे सांचे में ढाल दिया। उनके लिये चिप्स बनानेवाली कंपनियाँ दूसरी हैं-- जैसे इंटेल। सन 1980 के आसपास जब 8086 चिप उपलब्ध हुई थी उसका उपयोग कर मायक्रोसॉफ्ट कंपनीने डॉस ऑपरेटिंग सिस्टम बनाई जिसमें उनके जमानेसे पहले किये गये रिसर्च और उनके सिद्धांत काम आये। पहलेसे चल रहे कई प्रोग्राम, उदाहरणस्वरूप गद्यलेखनके लिये वर्डस्टार, साथही बेसिक, कोबोल इत्यादी संगणकीय भाषा, लोटस या स्प्रेडशीट जैसे प्रोग्राम आदि डॉस ऑपरेटिंग सिस्टम के माध्यमसे सुलभ हो गये। सन 1990 आते आते चिप्सका विकास भी हुआ -- 8086 की जगह 80286, 80386 आदि अधिक क्षमतावाली चिप उपलब्ध होती गई। अब संगणकीय भाषा सीखनेकी आवश्यकता कम रह गई, केवल डॉस सिस्टममें थोडासा प्रोग्रामिंग सीखकर संगणकका उपयोग सुलभतासे किया जा सकता था। बडी संख्यामें युवा पीढी इस नये करियरको अपनाने लगी। संगणक इंजिनियर बननेके लिये अब भी संगणकीय भाषाएँ खासकर C++ और जावाका विशिष्ट तंत्र सीखना पडता है, लेकिन उसके बिना भी, केवल संगणकीय व्यवस्थापनशास्त्रकी पढाई कर BCA, MCA, BCS, जैसी डिग्रियाँ लेकरकिसी बडे ऑफिसमें संगणकके काम संभालना एक अच्छा करियर ऑप्शन बना।
इस विकासकी अगली कडी बना graphical user interface (GUI) तंत्रका विकास जिसमें ऑपरेटिंग सिस्टमके निर्देशोंको और भी सरल बनानेके लिये प्रतिनिधि-चित्र (icon) का उपयोग हुआ, साथ ही कई तरहके निर्देशोंको एक ही साँचेमें ढाल दिया -- जैसे फाइल, एडिट, गमसर्ट उत्यादि मेनू हर जगह एकही तरीकेसे काम करते हैं। इस प्रकार 1995 में मायक्रोसॉफ्टने विण्डोज ऑपरेटिंग सिस्टम और उसके साथ मायक्रोसॉफ्ट ऑफिस जैसे रेडिमेड प्रोग्राम बाजारमें उतारे। इसी वर्ष इंटरनेट भी वैज्ञानिकोंकी प्रयोगशालासे बाहर आकर सामान्यजनके लिये उपलब्ध हो गया।
इसी दौरान ऑपरेटिंग सिस्टमके बाहर भी दूसरे कई सॉफ्टवेअर विकसित हो रहे थे। याहू और गूगल जैसी इंटरनेट सर्विस आई। एक बारका लिखा बदला न जा सके इसके लिये pdf फाईल तैयार करनेवाली acrobat कंपनी, इंटरनेटसे बडी फाइले शीघ्र गतिसे डाऊनलोड करवानेवाली get right या orbit कंपनी, फाइलका आकार छोटा करनेवाली, साथ ही कई फाइलोंवाले फोल्डरको भी एक गठरी-फाइल बनानेवाला झिप अनझिप पद्धतिका आविष्कार, या हमें वेबसाइट डिझाइन करनेमें सहायता करनेवाला ड्रीमवीव्हर जैसा सॉफटवेअर ये सारे इसी काल में बने। इंटरनेटकी सहायतासे दूसरोंके संगणकपर जाकर उनकी फाइलें खराब (करप्ट) करनेवाले प्रोग्राम भी बने जिन्हें संगणक-विषाणु (व्हायरस) नाम पडा और फिर उन विषाणुओंको ढूँढकर नष्ट करनेवाले, प्रोग्राम भी बने। एक दिलको दुखानेवाली बात रह-रहकर मनमें आती है कि ऐसा कोई आविष्कार भारतियोंने नही किया है हालांकि दुनियाभरके संगणक-तंत्रज्ञोंकी गिवती की जाय तो भारतियोंकी संख्या सर्वाधिक है। खैर, आगेभी ऐसेही कितने आविष्कार होते रहेंगे। इन सबके पीछे इन सुविधाओंकी कल्पना कर सकनेवालोंकी, और उन्हें अविष्कारमें बदलनेवालोंकी प्रतिभा और प्रज्ञा काम आई। उनके कारण संगणकका तंत्र सरल हुआ, किमतें कम हुईं और उपयोग तो इतने प्रकारसे बढा कि आज प्रत्येक सुशिक्षित व्यक्तिके पास संगणकका प्रशिक्षण भले ही न हो, पर संभावनाओंकी जानकारी अवश्य होनी चाहिये।
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