Saturday, April 21, 2007

क्वांटम सिद्धांत का आरंभ The first glimpses of Quantum theory

क्वांटम सिद्धांत का प्रारंभ


क्वांटम सिद्धांत का प्रारंभ बड़े ही अनोखे ढंग से हुआ । न्यूटन ने सोलहवीं सदी में प्रकाश की प्रकृति के विषय में कुछ सिद्धांत बनाये । न्यूटन का कहना था कि जब हमें कोई वस्तु दीखीती है तो वास्तव में होता है यह कि उस वस्तु से काफी कण निकलते हैं जो आंखों से टकराने पर दृष्टि का भान निर्माण करते हैं । रंगों के विषय में उनका कहना था कि प्रत्येक रंग के अलग-अलग कण होते हैं और उनके वेग के कारण उन्हें एक-दूसरे से ड्डत्द्मद्यत्दढ़द्वत्द्मण् किया जा सकता है । वस्तुएं दो प्रकार की होती हैं - स्वयंप्रकाशित जिनसे प्रकाश बराबर निकलता रहता हो जैसे सूर्य, मोमबत्ती की लौ या काफी तपाया हुआ लोहा पर प्रकाशित वस्तुएं वह हैं कि कहीं से आया हुआ प्रकाश उन पर पड़कर परावर्तित होता है और ऐसा प्रतीत होता है कि प्रकाश उन्हीं वस्तुओं से निकल रहा है और फिर हम उन वस्तुओं को देख पाते हैं जैसे दिन के उजाले में दीख पड़ने वाली वस्तुएं या चांद ।

न्यूटन के समकालीन एक और वैज्ञानिक थे हाइजिन जिन्होंने प्रकाश को तरंग बताया । आगे चलकर अन्य प्रयोगों द्वारा हाइजिन का सिद्धांत ही सर्वमान्य हो गया । इसके अनुसार अलग-अलग रंगों के प्रकाश का कारण उन तरंगों का, उन लहरों का कंपनांक है और यह कम्पनांक उन वस्तुओं की आन्तरिक रचना पर निर्भर हे जिनसे प्रकाश निकलता है ।

इस विवरण के पश्चात्‌ हम लोग दो बिल्कुल अलग-अलग सिद्धांतों की ओर चलेंगे । एक के साथ नाम जुड़ा है प्लांक का और दूसरे के साथ माइकेल्सन का ।

प्लांक के खोज का इतिहास जानने के लिए हम लोग तपते हुए लोहे के विषय में थोड़ा जानेंगे । लोहे को यदि धीरे-धीरे गर्म किया जाए तो हम देखते हैं कि इसका रंग धीरे-धीरे लाल, फिर नीला और फिर सफेद सा हो जाता है । अर्थात्‌ जैसे-जैसे लोहे के तापक्रम को बढ़ाया जाए वैसे-वैसे उससे अलग-अलग रंगों वाले प्रकाश निकलने लगते हैं । फिर भी जब एक रंग का प्रकाश निकलता हो तो इसका अर्थ यह नहीं कि दूसरे रंगों के प्रकाश बिल्कुल ही न निकलते हों । कम अधिक मात्रा में सभी रंगों के प्रकाश निकलते हैं लेकिन जिस रंग का प्रकाश अधिक निकलता हो, वस्तु का रंग वही जान पड़ता है । अन्ततः जब सभी रंगों के प्रकाश बहुतायत से निकलने लगते हैं तो लोहे का रंग सफेद जान पड़ता है ।

अब यह तो तुम जानते ही हो कि हर तरंग की अपनी एक ताकत होती है, अपनी एक शक्ति होती है जिसे विज्ञान की भाषा में ऊर्जा कहते हैं । तो ध््रड्ढत्द नामक वैज्ञानिक ने दो बातों की माप की । एक तो यह कि किसी ऐसे तप्त पदार्थ से निकलते किसी भी एक कम्पनांक वाले प्रकाश की ऊर्जा तापक्रम के बढ़ने पर किस प्रकार बढ़ती है । दूसरी माप यह कि किसी एक नियत तापक्रम पर जो अलग-अलग कम्पनांकों के प्रकाश निकलते हैं, उनकी प्रत्येक की कुल ऊर्जा कितनी होती है ।

इससे पहले हम यह जानने का प्रयास करेंगे कि तरंग की ऊर्जा क्या है ? पिछले ड़ण्ठ्ठद्रद्यड्ढद्ध में तुमने पढ़ा कि कलासिकल फिजिक्स में हम मानते हैं कि ऊर्जा सतत्‌ है, ऊर्जा का कुछ भी परिमाण हो सकता है । जिस प्रकार घड़ी की सुई डायल पर घूमते हुए डायल के हर बिन्दु पर गुजरेगी, या यह कहो कि जैसे घड़ी की सुई डायल पर कोई भी स्थिति ग्रहण कर सकती है उसी प्रकार किसी तरंग की ऊर्जा भी शून्य से लेकर अनन्त तक कुछ भी हो सकती है, प्रत्येक परिमाण धारण कर सकती है । कलासिकल फिजिक्स की यह भी मान्यता है, कि इस प्रकार प्रत्येक परिमाण की हम माप कर सकते हैं । इसे एक और उदाहरण से समझो । मान लो कि पानी की एक बूंद का वजन क है, जमीन से नल की ऊंचाई ख है और गुरूत्वाकर्षण शक्ति ग है तो नल से निकलते समय बूंद की स्थितिज शक्ति होगी कखग । जमीन पर पहुच कर उसकी स्थितीज शक्ति होगी शून्य । बीच के किसी बिन्दु पर जो जमीन से ख ऊंचाई पर है, बूंद की शक्ति होगी कखग । अब जाहिर है कि नल से जमीन तक आने में पानी की बूंद हर बिन्दु से गुजरी है अर्थात्‌ बूंद की स्थितिज शक्ति भी हर संभव परिमाण से गुजरी है । यह बात पानी की प्रत्येक बूंद को लागू है । इसी प्रकार प्रत्येक
तरंग की ऊर्जा भी हर परिमाण को धारण कर सकती है । सिज प्रकार पानी की बूंद की ऊर्जा को हर स्थिती में मापा जा सकता है उसी प्रकार तरंग की ऊर्जा को भी हर स्थिती में मापा जा सकता है । यह भी है कलासिकल फिजिक्स की धारणा । इस धारणा पर हमें आगे चलकर विचार करेंगे ।

भौतिकी की एक और दिलचस्प शाखा है च््रण्ड्ढद्धथ््रदृड्डन््रदठ्ठथ््रत्ड़द्म-अर्थात्‌ वह शाखा जो ताप और गति के संबंधों को एवं नियमों को बताती है । आज हम यह जानते हैं कि पदार्थों की, या अधिक सही ढंग से कहा जाए तो अणु और परमाणुओं की गति के कारण ताप उत्पन्न होता है और ताप मिलने पर अणुओं की या परमाणुओं की गति बढ़ जाती है जिसे हम तापक्रम के रूप में मापते हैं । इस सारे विवरण में यह समझ लेना बहुत आवश्यक है कि हम जो ताप या तापक्रम की माप करेंगे वह सभी अणुओं की संयुक्त गति की माप का फल होगा । प्रत्येक अणु की अलग-अलग गति के विषय में हम नहीं जान सकते । चूंकि द्यण्ड्ढद्धथ््रदृड्डन््रदठ्ठथ््रत्ड़द्म के नियम अणुओं की गति से संबंधित हैं और चूंकि अणु बहुत ही छोटे होते हैं और प्रत्येक पदार्थ के मूलतत्व होते हैं, अतः द्यण्ड्ढद्धथ््रदृड्डन््रदठ्ठथ््रत्ड़द्म के नियम पदार्थ की बाहरी अवस्था पर निर्भर नहीं होते हैं ।

तुममें से जो कोई भौतिकी के विद्यार्थी हैं या रह चुके हैं उनकी दिलचस्पी के लिए इन नियमों पर एक विहंगम दृष्टि डाली जा सकती है । इसका पहला नियम यह है कि जब दो भिन्न तापक्रम वाली वस्तुएं एक-दूसरे के साथ रखी जायें तो तापीय ऊर्जा एक वस्तु से दूसरे वस्तु में प्रसारित होती है और अन्ततः दोनों वस्तुओं का तापक्रम एक सा हो जाता है । दूसरा नियम यह है कि संसार के किसी भी इंजन की ड्ढढढड़त्ड्ढदड़न््र सौ प्रतिशत नहीं हो सकती । इंजिन का अर्थ है ऐसा उपकरण जिसे एक खास प्रकार की ऊर्जा देने पर दूसरे खास प्रकार का काम उससे हो सके । उदाहरण स्वरूप रेलवे का कोयला इंजिन - इसे हम कोयले के रूप में ऊर्जा देते हैं और यह गति उत्पन्न करने का काम करता है । इसी नियम से आगे बढ़कर हम निरपेक्ष शून्य तापक्रम (ठ्ठडद्मदृथ्द्वद्यड्ढ ड्ढद्धदृ द्यड्ढथ््रद्रद्यड्ढद्धठ्ठद्यद्वद्धड्ढ) के विचार को समझते हैं, द्धड्ढध्ड्ढद्धद्मत्डथ्ड्ढ और त्द्धद्धड्ढध्ड्ढद्धद्मत्डथ्ड्ढ द्रद्धदृड़ड्ढद्मद्मड्ढद्म के विषय में पढ़ते हैं और ड्ढदद्यद्धदृद्रन््र के विषय पर आते हैं । कदद्यद्धदृद्रन््र को समझने के लिए हमें प्रकृति में समाई अव्यवस्था को समझना पड़ेगा । या कहो कि प्रकृति में समाहित विनाश के नियमों को समझना पड़ेगा ।

क्लास में बैठे हुए ३० बच्चों को यदि चुप रखना हो तो मेहनत करनी पड़ती है - उन्हें डांटना पड़ता है या कहानी में उलझाना पड़ता है । यदि कोई परिश्रम न किया जाए तो बच्चे तुरंत ऊधम मचाने लगेंगे । वैसे ही यदि किसी पिस्टन के द्वारा हवा के सभी अणुओं को एक साथ लाकर उनसे कुछ काम कराना है तो मेहनत करनी पड़ेगी । पिस्टन पर कुछ काम करना पड़ेगा । यह न किया जाए तो हवा के अणु वातावरण में अव्यवस्थित रूप से बिखरे पड़े रहेंगे (बल्कि घूमते रहेंगे) और उनसे कोई काम अपने आप नहीं हो पाएगा । कदद्यद्धदृद्रन््रका सरलतम उदाहरण यही है । यह अव्यवस्थित दशा ही अणुओं का प्राकृतिक रूप है । यही हमें कदद्यद्धदृद्रन््र का नियम बताता है । कदद्यद्धदृद्रन््र का नियम है कि प्रकृति में कदद्यद्धदृद्रन््र या तो स्थिर रहेगी या बढ़ती रहेगी परन्तु कम नहीं हो सकती है । इसके साथ-साथ ही पढ़ने के लिए दिलचस्प परिच्छेद हैं गैसों के गति के नियम कदद्यद्धदृद्रन््र (त्त्क्ष्दड्ढद्यत्ड़ द्यण्ड्ढदृद्धन््र दृढ ढ़ठ्ठद्मड्ढद्म), द्मद्रड्ढड़त्ढत्ड़ ण्ड्ढठ्ठद्य, द्धड्ढड्डत्ठ्ठद्यत्दृद द्रद्धड्ढद्मद्मद्वद्धड्ढ इत्यादि । इनमें से कोई भी च््रण्ड्ढद्धथ््रदृड्डन््रठ्ठदठ्ठथ््रत्ड़द्म के नियमों से अधिक दूर नहीं जाता ।

इन्हीं नियमों की सहायता से किरचॉफ ने सन्‌ में यह नियम बनाया कि किसी भी नियत तरंग लम्बाई और नियत तापक्रम पर दुनिया के सभी पदार्थों के लिए ड्ढथ््रत्द्मद्मत्ध्ड्ढ द्रदृध््रड्ढद्ध एवं ठ्ठडद्मदृद्धद्रद्यत्ध्ड्ढ द्रदृध््रड्ढद्ध का अनुपात समान होता है । किसी भी वस्तु की सतह पर जो भी प्रकाश की (या अन्य कोई भी) तरंग पड़ती है तो उस तरंग का कुछ हिस्सा ही परावर्तित हो पाता है जब कि कुछ हिस्सा सोख लिया जाता है । इसके विपरीत ड्ढथ््रत्द्मद्मत्दृद की क्रिया वह है कि यदि किसी वस्तु को गर्म किया जाए तो उसकी सतह के पास हाथ लाने पर भी गर्मी मालूम पड़ती है । इसका कारण है कि वह गर्म वस्तु अपनी उर्जा को उत्सर्जन ड्ढथ््रत्द्मद्मत्दृद के द्वारा बाहर निकालती है । किरचॉफ के नियमानुसार यह जाहिर है कि जो वस्तु अच्छी ठ्ठडद्मदृद्धडड्ढद्ध है वह उतनी ही अच्छी ड्ढथ््रत्द्यद्यड्ढद्ध होगी । प्रकाश सोखनेवाली वस्तुओं का सबसे अच्छा उदाहरण है काली वस्तुएॅ जैसे काले परदे लगे हुए कमरे,कोलतार पुता हुआ डिब्बा,काली मखमल इत्यादि । एक अंधेरे कमरे में काले कागज और सफेद कागज पर टॉर्च की रोशनी डालकर देखो तो पता चलेगा कि काले कागज पर बहुत कम रोशनी मालूम पड़ती है जबकि सफेद कागज पर अधिक क्योंकि काला
कागज अधिक रोशनी सोखता है और सफेद कागज कम। भूरा कागज सफेद कागज की तुलना में अधिक प्रकाश सोखता है परन्तु काले कागज से कम । इसी से वह भूरी दिखाई पड़ती है । वैसे ही जब काले कागज को सफेद कागज को गर्म करेंगे तब काले कागज से अधिक तरंगे निकलेंगी और सफेद कागज से कम।

और अब हम दुबारा चलते हैं तपते हुए लोहे की ओर। किसी तपते हुए लोहे में निकलने वाली नियत कम्पनांक क के तरंगों की उर्जा की माप कैसे हो यानि वाएन ( ध््रत्ड्ढद)ने यह माप कैसे की यहाँ महत्वपूर्ण प्रश्श्नयह है कि किसी नियत तापक्रम पर किसी एक प्रकार के कम्पनांक पर जितनी उर्जा निकलती है उसकी माप हो और इस प्रकार हो कि प्रायोगिक गलतियाँ कम हों ताकि जो निष्कर्ष निकले वह अधिक से अधिक सही हो और किसी को यह कहने का मौका नही मिले कि तुम्हारे प्रयोग में अमुक-अमुक गलतियाँ हुई होंगी । इसके लिये हमें एक आदर्श (ड्ढथ््रत्द्यद्यड्ढद्ध)चाहिये जो थोड़ा सा भी गर्म किये जाने पर अपनी सारी ऊर्जा को तरंगों के रुप में बाहर निकाल देता है और वह भी इस प्रकार कि निकलने वाली हर तरंग इधर उधर छिटके बिना सीधे मापने वाले यंत्र में आये ।

इस प्रकार की मापने की बात से पहले ही एक बात और हुई। द्यण्ड्ढद्धथ््रदृड्डन््रदठ्ठथ््रत्ड़द्म के दूसरे नियम की सहायता से ही वाएन ने एक समीकरण की खोज की फार्मूला
जो माप वह करने जा रहे थे उस माप से उपर्युक्त नियम भी सिद्व होता है यया नहीं यह भी देखना था।वाएन के नियम से यही झलकता है कि किसी भी नियत तापक्रम पर किसी खास कम्पनांक की जो ऊर्जा उत्सर्जक ( ड्ढथ््रत्द्यद्यड्ढद्ध) से निकलेगी वह तरंग लम्बाई पर निर्भर करेंगी । साथ साथ तरंग लम्बाई और तापक्रम पर संयुक्त रुप से भी हनिर्भर करेगी । लेकिन ठीक ठीक किस रुप में....... पर निर्भर करेंगी यह द्यण्ड्ढद्धथ््रदृड्डन््रदठ्ठथ््रत्ड़द्म की सहायता से नहीं जाना जा सकता । यहां ... किसी तरंग की लम्बाई और .... उत्सर्जक को तापक्रम बताते हैं और .... उस तरंग लम्बाई की सभी तरंगों कुल ऊर्जा वाएन के प्रयोगों के लिए द्रड्ढद्धढड्ढड़द्य ड्ढथ््रत्द्यद्यड्ढद्ध या द्रड्ढद्धढड्ढड़द्य ठ्ठडद्मदृद्धडड्ढद्ध की आवश्यकता आ पड़ी । अब सोचो कि क्या कोई ऐसी भी वस्तु हो सकती है जो कोयले से, काली मखमल से या कोलतार से भी काली हो ? प्धातु से बने एक खोखले गाले की कल्पना करो जिसमें अन्दर से कालिख पुती हो । इसमें सुई की नोक के आकार का छोटा सा छेद करो । अब इस छेद से जो भी किरण अंदर गई, वह वापस नहीं आ सकती । गोले के अन्दर वह परावर्तन के कारण जितनी बार टकरायेगी उसकी ऊर्जा घटती जायेगी और अन्ततः वह बाहर नहीं आ सकेगी । अतः इस प्रकार का गोला एक आदर्श ठ्ठडद्मदृद्धडड्ढद्ध है और इसलिए एक आदर्श ड्ढथ््रत्द्यद्यड्ढद्ध भी । इस गोले को जब गर्म किया जाएगा तो यह एक द्रड्ढद्धढड्ढड़द्य ड्ढथ््रत्द्यद्यड्ढद्ध की तरह हर प्रकार की तरंग लम्बाई वाली तरंग उत्सर्जित करेगा । छेद में से जो भी किरणें निकलेंगी उन्हें ढद्धड्ढद्दद्वड्ढदड़न््र ढत्थ्द्यड्ढद्ध लगाकर किसी एक तरंग लम्बाई वाली किरणों की ऊर्जा मापी जा सकती है । इस मापने के यंत्र को बोलोमीटर कहते हैं ।

फिगर


इस प्रकार मापने पर देखा गया कि प्रत्येक नियत तापक्रम पर एक ऐसा कम्पनांक है जिसके तरंगों की ऊर्जा सर्वाधिक है । अतः उस तापक्रम में से उस रंग का प्रकाश आता हुआ दिखेगा । प्रयोगों से यह जानने के बाद कि किसी तापक्रम पर किसी तरंग लम्बाई के तरंगों की कुल ऊर्जा क्या होगी, यह प्रयत्न किया गया कि इसका सैद्धांतिक सूत्र (ढदृद्धथ््रद्वथ्ठ्ठ) ढूंढा जाए । इसके लिए हमें दो बातें जाननी पड़ेंगी - किसी तापक्रम पर एक विशिष्ट तरंग लम्बाई की कितनी तरंगे निकल सकती है और उनकी कुल ऊर्जा क्या हो सकती है और कैसे जानी जा सकती है ।

पहली बात इस प्रकार जानी जा सकती है - मान लो कि यह अपना उत्सर्जक (ड्ढथ््रत्द्यद्यड्ढद्ध) गोल न होकर डिब्बे की तरह है । इससे हमें अगला हिसाब समझने में आसानी होगी । परन्तु वह हिसाब उत्सर्ज के आकार पर निर्भर नहीं है अतः उत्सर्जक का आकार बदलकर कुछ भी हो जाए, अन्ततः हमारे हिसाब में कोई त्रुटि नहीं आयेगी ।

इस डिब्बे का तापमान जब बढ़ा दिया जाए तो इसके अन्दर ऊर्जा बढ़ जाती है अर्थात्‌ इसके अंदर द्मद्यठ्ठदड्डत्दढ़ ध््रठ्ठध्ड्ढद्म बनती हैं क्योंकि केवल द्मद्यठ्ठदड्डत्दढ़ ध््रठ्ठध्ड्ढद्म ही ऊर्जा जतन (द्मद्यदृद्धड्ढ) कर सकती हैं और इस प्रकार ऊर्जा बढ़ाने में मदद कर सकती हैं । उत्सर्जक से आती हुई तरंगे इन्हीं द्मद्यठ्ठदड्डत्दढ़ ध््रठ्ठध्ड्ढद्म का नमूना पेश करती हैं ।

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यदि डिब्बे के दो सामने की दिवारों की दूरी द है तो जो सबसे बड़ी द्मद्यठ्ठदड्डत्दढ़ ध््रठ्ठध्ड्ढ बनेगी उसकी तरंग लम्बाई त इस प्रकार होगी कि त उ २ द ????
इससे छोटी तरंगों की लम्बाई के लिए सूत्र होगा -
फार्मूला

डिब्बा चूंकि आयताकार है अतः किसी भी दिशा में द्मद्यठ्ठदड्डत्दढ़ ध््रठ्ठध्ड्ढ बन सकती हैं । आयत के तीन अक्ष होंगे (यानी तीन दिशाएं होंगी) । अतः किसी भी ढ़ड्ढदड्ढद्धठ्ठथ् द्मद्यठ्ठदड्डत्दढ़ ध््रठ्ठध्ड्ढ का सूत्र होगा

फार्मूला

यहां न१, न२ और न३ तीनों ही पूर्णांक यथा 1, २, ३, ४ इत्यादि हैं - और डिब्बे की तीन दिशाओं को दर्शाते हैं ।

तरंग लम्बाई की जगह कम्पनांक का सूत्र भी लिखा जा सकता है -
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जहां प्र उ प्रकाश का वेग फार्मूला

यह समीकरण एक ऐसे गोले की द्मत्द्धढठ्ठड़ड्ढ को दर्शाता है जिसकी त्रिज्या ???? है ।

यह जानने के लिए कि उत्सर्जक से निकलती हुई कितनी तरंगों का कम्पनांक क और का द्धठ्ठदढ़ड्ढ के भीतर है (यहां हम मानते हैं कि क और का के बीच बहुत थोडा सा अन्तर है) हमें एक ऐसा त्रिमितीय (च््रण्द्धड्ढड्ढ ड्डत्थ््रड्ढदद्मत्दृदठ्ठथ्) थ्ठ्ठद्यद्यत्ड़ड्ढ खींचना पड़ेगा जिसकी हर इकाई ड़द्वडड्ढ की भुजा ????है । इस थ्ठ्ठद्यद्यत्ड़ड्ढ पर हम दो गोले (द्मद्रण्ड्ढद्धड्ढद्म) खींचे जिनकी त्रिज्याएं क्रमशः ???? और ????? हों । चूंकि न१ न२ और न३ केवल धनात्क पूर्णांक हो सकते हैं अतः यह गोले हम थ्ठ्ठद्यद्यत्ड़ड्ढ के आठवें हिस्से में ही खीचेंगे ।

फिगर


तो क और का कम्पनांक के द्धठ्ठदढ़ड्ढ में स्थित तरंगों की कुल संख्या इन दोनों गोलों की बीच की द्मद्वद्धढठ्ठड़ड्ढ और इकाई ड़द्वडड्ढ के आयतन (ध्दृथ्द्वथ््रड्ढ) के अनुपात से मालूम पड़ेगी । चूंकि क और का के बीच का अन्तर बहुत कम है, हम एक ऐसे गणित का सहारा लेंगे जिसे कहते हैं ड्डत्ढढड्ढद्धड्ढदद्यत्ठ्ठथ् ड़ठ्ठथ्ड़द्वथ्द्वद्म . यहां चूंकि

फार्मूला

चूंकि उत्सर्जित होने वाली प्रकाश किरणें-विद्युत्‌-चुम्बकीय होती है - अतः दोनों तरह की द्मद्यठ्ठदड्डत्दढ़ ध््रठ्ठध्ड्ढ बनेंगी विद्युतीय एवं चुम्बकीय

फार्मूला


इन तरंगों को हर तरंग की ऊर्जा से गुणा करने पर हमें ?? कम्पनांक के कुल तरंगों की ऊर्जा का मान मिलेगा
। यह मालूम करना एक बड़ी कठिन समस्या है ।

इसलिए कि हमने पढ़ा कि कलासिकल फिजिक्स के अनुसार किसी भी तरंग की ऊर्जा शून्य से लेकर अनन्त तक कुछ भी हो सकती है । अब मान लो हम लाल रंग की तरंगों का विचार कर रहे हैं जिनका कम्पनांक क????है । यहां हमें यह सोचना पड़ेगा कि लाल रंग की किसी एक तरंग में शून्य ऊर्जा होने की क्या द्रद्धदृडठ्ठडत्थ्त्द्यन््र है, और अनन्त ऊर्जा होने की क्या द्रद्धदृडठ्ठडत्थ्त्द्यन््र है । उसमें ४.२ अर्ग ऊर्जा होने की क्या द्रद्धदृडठ्ठडत्थ्त्द्यन््र है और २०.५ अर्ग ऊर्जा होने की क्या द्रद्धदृडठ्ठडत्थ्त्द्यन््र है । यदि ४.२ अर्ग ऊर्जा होने की द्रद्धदृडठ्ठडत्थ्त्द्यन््र २ प्रतिशत है और हमारे पास कुल १०० लाल तरंगे हैं तो उनमें से दो तरंगे ऐसी होंगी जिनकी प्रत्येक की ऊर्जा ४.२ अर्ग है और उनकी कुल ऊर्जा २ न् ४-२ उ ८.४ अर्ग होगी । इसी प्रकार कुल १०० किरणों में से जितने तरंगों की जो भी ऊर्जा है उनका गुणनफल करते जाओं और सबका जोड़ लगाओ तो १०० किरणों की कुल ऊर्जा का मान ज्ञात होगा । इस प्रकार के जोड़ की क्रिया को गणितीय भाषा में कहते हैं त्दद्यदृद्धठ्ठद्यत्दृद या कलन ।

यहां हम कुछ देर के लिए तरंगों की दुनिया छोड़कर गणित की दुनिया में झाकेंगे । क्योंकि यह समझ लेना अत्यंत आवश्यक है कि त्दद्यड्ढढ़द्धठ्ठद्यत्दृद जिसे हिन्दी में कलन कहते हैं और जोड़ना जिसे अंग्रेजी में द्मद्वथ््रथ््रठ्ठद्यत्दृद कहते हैं दोनों बिल्कुल अलग-अलग बाते, अलग-अलग प्रक्रियाएं हैं । पिछले परिच्छेद में जोड़ शब्द का प्रयोग केवल इसलिए हुआ है कि जिन्होंने गणित की पढ़ाई न की हो उन्हें 'कलन' शब्द से तत्काल कुछ भी बोध नहीं हो सकता ।

फिगर

मान लो कि तुम्हें ककाकि की लम्बाई मापनी है और खखाखिखी की भी । तो तुम क्या करोगे ? एक पट्टी से कका की लम्बाई नापो, फिर काकि की और दोनों का जोड़ करो । उसी प्रकार खखा, खाखि और खिखी को अलग-अलग नापो और जोड़ करो । लेकिन अर्थवृ-त अअः की सही नाप इस प्रकार नहीं हो सकती । अअः की नाप में तुम देखोगे कि लाल रास्ते से जो जोड़ किया जाएगा वह काफी गलत उ-तर बनायेगा । उस तुलना में हरे रास्ते से किया गया जोड़ कुछ हद तक अधिक सही होगा और नीले रास्ते से किया जोड़ और भी ठीक । पर जहां लाल रास्ते में एक ही बार जोड़ना है और माप का परिमाण भी बड़ा है, नीले रास्ते में ३ बार जोड़ना पड़ेगा और नाप की स्केल भी छोटी लेनी पड़ेगी । इस स्केल के जितना ही अधिक छोटा करो, उतनी ही अधिक बार जोड़ लगाना पड़ेगा पर उ-तर भी काफी हद तक ठीक निकलेगा ।

फिगर

अब इस चित्र को गौर से देखो जहां नापने की स्केल को काफी छोटा किया गया है । अर्धवृ-त अअः को कई सरल रेखाओं अआ, आइ, इई.... इत्यादि द्वारा चापखंडों में (द्मड्ढड़द्यदृद्धद्म) बांटा गया है । यह सरल रेखाएं या ड़ण्दृद्धड्डद्म अत्यंत छोटी होने के कारण अर्धवृ-त के उस-उस चापखण्ड पर करीब-करीब दृध्ड्ढद्धथ्ठ्ठद्रद्रत्दढ़ है । फिर भी तुम देखोगे कि इन सरल रेखाओं (ड़ण्दृद्धड्डद्म) के दो बिन्दु एक ही दिशा को दर्शाते हैं, चापखंड (द्मड्ढड़द्यदृद्ध) के हर दो नजदीकी बिन्दु भिन्न-भिन्न दिशाएं दर्शाते हैं (गणित की भाषा में - प्रत्येक बिन्दु पर द्यड्ढदढ़ड्ढदद्य की दिशा अलग-अलग है) नापने की स्केल (यानी यह सरल रेखाएं) जिन बिन्दुओं को द्यद्धठ्ठड़ड्ढ कर रही हैं । उनमें ड़द्वद्धध्ठ्ठद्यद्वद्धड्ढ का ठहराव हो गया है । सरल रेखा आइ पर आ से इ तक ड़द्वद्धध्ठ्ठद्यद्वद्धड्ढ नहीं बदलेगा । इसलिए अ से अः तक की लम्बाई को यदि सरल रेखाओं अआ, आइ, इई.... के अनुगत मापना है तो हम जोड़ करेंगे अआ अ आइ अ इईअ अंअः अ अंअः । जरूरी नहीं है कि अआ और आइ के अंतर समान हो । जरूरी यह है खण्ड की माप के लिए हमने जो भी खण्ड चुना हो अआ या उऊ, उसकी पूरी लम्बाई तय होने तक ड़द्वद्धध्ठ्ठद्यद्वद्धड्ढ नहीं बदले । अतः यहां हमने जोड़ या द्मद्वथ््रथ््रठ्ठद्यत्दृद किया । पर यदि बाहरी ओर से चाप के अनुगत इस लम्बाई की माप करनी हो तो हम देखते हैं कि प्रत्येक बिन्दु पर वक्रता (ड़द्वद्धध्ठ्ठद्यद्वद्धड्ढ) बदल रही है । अर्थात्‌ द्मड़ठ्ठथ्ड्ढ हमें इतनी छोटी लेनी पड़ेगी जो केवल दो नजदीकी (ठ्ठड्डत्र्ठ्ठड़ड्ढदद्य) बिन्दुओं को ड़दृध्ड्ढद्ध करती है और अनन्त नापें लेकर उनकी जोड़ करनी पड़ेगी - यही क्रिया है कलन (त्दद्यड्ढढ़द्धठ्ठद्यत्दृद)

इस उदाहरण में क्या तुम बता सकते हों कि कलन की प्रक्रिया द्वारा इस चाप की लम्बाई कैसे नापी जाएगी ?
मान लो कि एक छोटा सा चापखंड (द्मड्ढड़द्यदृद्ध) है???जो केंद्र पर एक छोटा सा कोण बनाता है ??? और त्रिज्या की लम्बाई है ??? तो त्रिकोण मिती के नियमानुसार ???? या ???? एक बार फिर बता दें कि गणित में कलन या अवकलन -त्दद्यड्ढढ़द्धठ्ठद्यत्दृद या ड्डत्ढढड्ढद्धड्ढदद्यत्ठ्ठद्यत्दृद की प्रक्रिया में ???किसी भी वस्तु के अत्यंत छोटे माप को बताती है जैसे ?? का अर्थ है केंद्र पर बनाने वाला अत्यंत छोटो कोण जिसका मान ड्डऋ है ।

अब ऐसे ही कई छोटे-छोटे ??? को अनन्त गुणा जोड़ने पर हमें चाप की लम्बाई का पता चलेगा । इसे अनन्त बार जोड़ने का हम लिखते हैं ????

फार्मूला
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इसी प्रकार हम एक ड्ढन्द्रठ्ठदड्डत्दढ़ द्मद्रत्द्धठ्ठथ् का उदाहरण समझेंगे । नीचे के चित्रों में से पहले चित्र में पूरे आधे चक्र तक त्रिज्या का मान नहीं बदला है जबकि दूसरे चित्र में हर बिन्दु पर त्रिज्या का मान बदल रहा है । अतः पहले चित्र के लिए अआइईउऊ की लम्बाई होगी -

फार्मूला फिगर

यही दूसरे चित्र में अआइईउऊ की लम्बाई होगी -

फार्मूला फिगर

इस उदाहरण के बाद तुम द्मद्वथ््रथ््रठ्ठद्यत्दृद और त्दद्यड्ढढ़द्धठ्ठद्यत्दृद के अन्तर को समझ गये होंगे । जहां बदलाव ड़दृदद्यत्दद्वठ्ठदड़ड्ढ है वहां कलन की प्रक्रिया की जाती है और जहां बदलाव ठहर-ठहर कर है (अलंकारिक भाषा में - जहां बदलाव में ठहराव है) वहां जोड़ (द्मद्वथ््रथ््रठ्ठद्यत्दृद) की प्रक्रिया काम में लाते हैं ।

अब वापस चला जाए लाल रंग के तरंगों की ओर । उत्सर्जक से जो भी तरंगे निकलेंगी वह १०० या २०० नहीं बल्कि अरबो-करोड़ों की संख्या में होंगी और कलासिकल फिजिक्स की मान्यता के अनुसार उनकी ऊर्जा का मान शून्य से लेकर अनन्त तक कुछ भी हो सकता है । यदि हम मानें कि ??? तरंगों की ऊर्जा ??? है, ???? तरंगों की ऊर्जा ???? है ---- तो कुल तरंगों की संख्या होगी ??????? और कुल ऊर्जा होगी ???????

जहां ???????? का मान शून्य से अनन्त के बीच कुछ भी हो सकता है ।
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किरण-किरण-किरण The discovery of x-rays

किरण-किरण-किरण


किरण में किरण - क्ष किरण । इनकी कथा अति मनोहारी है और उपयोग अति गुणकारी और जमाने को इनकी पहचान तो इतनी अधिक हो गई है कि जैसे हम हिन्दी में पढ़ते हैं - क से कमल वैसे ही अंग्रेजी में पढ़ते हैं x से x-ray यानी क्ष किरण । इन क्ष किरणों की खोज दिसम्बर १८९५ में जर्मन वैज्ञानिक रोण्टजेन ने की ।

तुम्हें तो मालूम ही होगा कि हमारी सदी का सबसे बड़ा पुरस्कार है नोबेल पुरस्कार । यह सन्‌ १९०१ में प्रारंभ हुआ । और पहला नोबेल पुरस्कार मिला क्ष किरणों की खोज के लिये - रोण्टजेन को ।

कल्पना करो सन्‌ १८९० की और उस समय चल रहे निर्वात्‌ नली के प्रयोगों की । निर्वात्‌ नली में अत्यंत कम दबाव होने पर ऋणाग्र से कॅथोड किरणे निकलती हैं । करीब १८५८ में किए गए प्लूकर के प्रयोगों के बाद से ही यह विवाद विषय बना रहा कि यह कॅथोड किरणें आखिर क्या हैं ।

क्रुक्सने कई प्रयोग किए इन कॅथोड किरणों की प्रकृति जानने के लिए और यह प्रस्थापित करना चाहा कि कॅथोड किरणें वास्तव में तेजी से चलने वाले गैस अणु हैं जो दूसरे गैस अणुओं से टकराने के कारण प्रकाश उत्पन्न करते हैं और निर्वात्‌ नली के शीशे की दीवारों से टकराने पर फ्लूरोसेंस । क्रुक्स का सिद्धांत १८७९ में प्रकाशित हुआ । परन्तु एक साल के अन्दर-अन्दर १८८० में गोल्डस्टीन ने सिद्ध कर दिया कि कॅथोड किरणें गैस अणु नहीं हो सकते । यह सिद्ध करने के लिए उसने प्रयोग द्वारा दिखाया कि यदि कॅथोड किरणों के चलने की दिशा दो विभिन्न स्थितियों में विभिन्न हो - अर्थात्‌ एक बार देखने वाले की सीध में हो और दूसरी बार उससे समकोण बनती हुई (perpendicular) तो जो Doppler effect दिखाई पड़ना चाहिए वह न.जर नहीं आता । १८८४ में फिर एक बार स्यूस्टर नाम वैज्ञानिक ने यही बात उठाई और बताया कि जिन अणुओं से कॅथोड किरणें टकराते हैं उन अणुओं से यदि प्रकाश निकलता हो तो चूंकि उन अणुओं की गति अत्यंत कम है, अतः हॉल्पर प्रभाव का न.जर न आना स्वाभाविक ही है । १८८८४ और १८९० के बीच के प्रयोगों से स्यूस्टर ने यह भी प्रमाणित किया कि कॅथोड किरणों के आवेश और मात्रा का अनुपात (e/m) किस रेंज में होगा । उसकी गणनाओं के अनुसार e/m का न्यूनतम मान ५x१०६ coulmbs per kg और महत्तम मान १०८ coulmbs per kg होगा । कुक्स की तरह उसका भी कहना था कॅथोड किरणें अति वेगवान्‌ आवेश युक्त गैस अणुओं से बने हैं परन्तु स्यूस्टर के प्रयोगों से e/m की ठीक-ठीक माप नहीं हो सकीं ।

दूसरी ओर हर्ट्ज्ञ जैसे वैज्ञानिक यह मान रहे थे कि कॅथोड किरणें प्रकाश ही की तरह कोई किरणें हैं । १८८३ में प्रयोग करते हुए हर्टज्ञ ने यह सिद्ध करना चाहा कि कॅथोड किरणों के उत्पन्न होने के साथ-साथ निर्वात नली में एक अत्यंत क्षीण विद्युत धारा भी निर्माण होती है जिसकी दिशा इत्यादि कॅथोड किरणों की दिशा से बिल्कुल अलग होती है । हालांकि यह सिद्ध हो चुका था कि कॅथोड किरणें चुम्बकीय क्षेत्र में मुड़ जाती हैं फिर भी कुछ वैज्ञानिक यह मानने को तैयार नहीं थे कि कॅथोड किरणें- प्रकाश किरणों से अलग हो सकती है या किसी वस्तु की (यानी अणुओं की) बनी हो सकती है । १८९१ में हर्टज्ञ और लेनार्ड ने और एक प्रयोग किया जिसमें निर्वात्‌ नली के धनाग्र के छोर पर एक अत्यंत पतली अर्थात्‌ ०.०००२६५ cm मोटी अल्युमिनियम की प्लेट लगाई । कॅथोड किरणें इस प्लेट को पार कर बाहर आ सकती है । इस प्रकार कॅथोड किरणों के निर्वात्‌ नली से बाहर निकलने का उपाय भी बन गया । लेनार्ड ने सिद्ध किया कि इस प्रकार बाहर सामान्य दबाव में आने वाली कॅथोड किरणें हवा में अधिक से अधिक ९cm की दूरी तय कर सकती हैं । लेनार्ड ने यह मुद्दा उपस्थित किया कि चूंकि छोटे से छोटा परमाणु अर्थात्‌ हाइड्रोजन परमाणु भी इस तरह की अल्युमिनियम की प्लेट को पार कर बाहर नहीं निकल सकता जब कि प्रकाश तरंग या विद्युत चुम्बकीय तरंगे पार कर सकती है अतः यह कॅथोड किरणें विद्युत चुम्बकीय तरंग ही है ।

इसके आगे पेरिन और थॉमसन ने सन्‌ १८९४ से १८९७ के दौरान प्रयोग किए और स्युस्टर के तरीकों को दुहराते हुए अन्य प्रयोगों द्वारा कॅथोड किरणों के e/m की माप की । इस माप से थॉमस ने १८९७ में यह प्रतिपादन किया कि कॅथोड किरणों की मात्रा अत्यंत कम है और इनकी उपस्थिति इस बात की द्योतक है कि परमाणु का खण्डन हो सकता है और निर्वात्‌ नली के प्रयोगों में परमाणु का एक अत्यंत छोटा अर्थात्‌ करीब दो हजारवां हिस्सा परमाणु से अलग निकल जाता है । यही नहीं, थॉमसन ने यह भी प्रतिपादन किया प्रत्येक परमाणु में इस प्रकार ऋण विद्युत से आवेशित और अत्यंत सूक्ष्म मात्रा वाले (अर्थात्‌ परमाणु की मात्रा से दो हजारवां हिस्सा मात्रा वाले) कण होते हैं जिन्हें इलैक्ट्रान का नाम दिया गया और यह इलैक्ट्रान कॅथोड किरणों के रूप में बाहर आते हैं ।

इस प्रकार तुम समझ गये होंगे कि निर्वात्‌ नली के प्रत्येक प्रयोग के पीछे एक ही प्रश्न था - कॅथोड किरणे क्या हैं ? ऊपर जो नाम बताये अर्थात्‌ प्लूकर, क्रुक्स, लेनार्ड, पेरिन, इ. यह सब उदाहरण स्वरूप हैं । परन्तु ऐसे प्रयोग और कितनी ही प्रयोगशालाओं में चल ही रहे थे । इन्हीं में एक थी रोण्टजेन की प्रयोगशाला । यह दिसम्बर १८९५ की घटना है (अर्थात्‌ थॉमसन के इलैक्ट्रान की खोज के पहले) । रोणटजेन तब बुर्झबर्ग चुनिव्हर्सिटी में रेक्टर थे । उन्होंने देखा कि एक अंधेरे कमरे में निर्वात्‌ नली के बाहर काफी अन्तर पर रखी हुई एक कूट की चकती पर जिस पर किसी कारणवश एक प्लूरासेंट पदार्थ - बेरियम प्लॅटिनोसायनाईड का लेप चढ़ा हुआ था, उसी प्रकार से चमकने लगी जिस प्रकार निर्वात्‌ नली के अन्दर शीशे की दीवारें । दिसम्बर १८९५ और मार्च १८९६ के दौरान अर्थात्‌ ४ ही महीना में रोण्टजेनने हजारो प्रयोग किए और अत्यंत महत्वपूर्ण निष्कर्ष पाए । संक्षेप में उनके निष्कर्ष इस प्रकार से थे ---

1. निर्वात्‌ नली से कुछ किरणें निकलती हैं जिनकी उपस्थिति जानने का सबसे सरल उपकरा है फ्लरोसेंट पदार्थ का लेप पढ़ाया हुआ गत्ते का टुकड़ा । इन किरणों को रोण्टजेन ने x-ray या क्ष किरण कहा ।
2. चूंकि लेनार्ड के प्रयोग में निर्वात्‌ नली से बाहर निकलने वाली कॅथोड किरणें सामान्य दबाव पर हवा में करीब ९ cm चल सकती है जबकि यह किरणें अनिरूद्ध गति से हवा में काफी दूर तक चली जाती हैं अतः स्पष्ट है कि यह किरणें कॅथोड किरणों से भिन्न हैं ।
3. कॅथोड किरणों की तरह यह किरणें चुम्बकीय क्षेत्र से विस्थापित नहीं होती । अतः इन्हें प्रकाश की तरह कोई विद्युत चुम्बकीय तरंग होना चाहिए ।
4. यह किरणें कागज कूट या धातु के पतले टुकड़ों को पार कर सकती हैं । इसी प्रकार यह पानी और प्रायः सभी द्रव पदार्थों को पार कर सकती हैं । शरीर के मांस को भी पार कर सकती है अतः इनसे हड्डियों की परछाई या फोटो साफ-साफ लिये जा सकते हैं ।
5. साधारण तथा पदार्थ में इनका absorption (शोषण) पदार्थ के घनत्व पर निर्भर करता है । परन्तु रोण्टजेन ने अपनी टिप्पणी में यह लिखा रखा है कि शीशे के टुकड़े, अल्युमिनियम के टुकड़े और कॅल्साईट के टुकड़े का घनत्व करीब-करीब समान होते हुए भी क्ष किरणों का शोषण कॅल्साईट में अत्यधिक है (इसका कारण है कैल्शियम की ऍटमिक संख्या का अधिक होना जो तब रोण्टजेन को मालूम नहीं था)
6. कॅथोड किरणों के शीशे से टकराने के कारण क्ष किरणों की उत्पत्त्िा होती है । यही कॅथोड किरणे शीशे के सिवा अन्य पदार्थों से टकराये (उदा. अल्युमिनियम की खिड़की जैसी लेनार्ड के प्रयोग में थी) तो भी क्ष किरणे उत्पन्न होती हैं ।
7. क्ष किरणों की intensity घटने में वही inverse square law लागू होता है जो प्रकाश किरण में भी लागू है । अर्थात्‌ जैसे जैसे ヒाोत से पर्दे की दूरी बढ़ती है, क्ष किरणों की चमक (अर्थात्‌ उससे फ्लूरोसेंट पर्दे पर पैदा होने वाली चमक) दूरी के वर्ग के अनुपात में घटती जाती है ।
8. रोण्टजेन को कई प्रयोगों के बाद भी क्ष किरणों का परावर्तन आवर्तन या व्यतिकरण कर पाने में सफलता नहीं मिली । साथ ही उनमें पोलरायझेशन का प्रभाव भी नहीं है । इस कारण रोण्टजेन ने अनुमान लगाया कि क्ष किरणे - transverse waves न होकर longitudinal waves होंगी । यह बाद में सिद्ध हुआ कि रोण्टजेन को जो बाते देखने को नहीं मिली उनका असली कारण था क्ष किरणों की अति सूक्ष्म तरंग लम्बाई वास्तव में क्ष किरणें भी प्रकाश किरणों की तरह transverse waves ही हैं ।
9. रोण्टजेन ने पाया कि धातु की casting में यदि कोई joints या cracks रह गये हो तो क्ष किरणों द्वारा उनकी फोटो ली जा सकती है । इस प्रकार metal casting की testing के लिये क्ष किरणों का उपयोग बड़ी सरलता से किया जा सकता है ।

इसी प्रकार रोण्टजेन ने अन्य कई प्रयोग किए और इस मामले में महत्वपूर्ण निष्कर्ष निकाले की क्ष किरणें वातावरण को किस प्रकार आयनीकृत करती हैं । क्ष किरणों की (तीव्रता) मापने का यह भी एक सर्वमान्य तरीका है ।

रोण्टजेन की खोज का उपभोग जितनी तेजी से हुआ उतनी तेजी से किसी और का न हुआ होगा । रोण्टजेन ने अपने प्रयोग के विवरण के साथ अपने हथेली के ढांचे का फोटो भी छपवाया था ८ नवम्बर १८९५ को और क्ष किरणों का प्रयोग कर टूटे हुए हाथ की परीक्षा करके हॉक्टोरॉने जो पहला प्लास्टर किया वह २० जनवरी १८९६ में । इसी प्रकार metal casting को तोड़कर देखे बिना उसके cracks जानने के लिए भी क्ष किरणों का तत्काल प्रयोग हुआ ।

तुम्हें शायद ऐसा लगे कि क्ष किरणों की यह खोज तो महज एक संयोग था - न रोण्टजेन निर्वात्‌ नली के बाहर रखे फ्लूरोसेंट कूट पर चमक देखता और न क्ष किरणों की खोज होती । लेकिन मजे की बात तो यह कि जो बात रोण्टजेन के देखने में आई वह और भी बड़े-बड़े वैज्ञानिकों के देखने में आई थी । १८८० में गोल्डस्टीन के एक प्रयोग का निष्कर्ष प्रकाशित हुआ था जो इस प्रकार है--
निर्वात्‌ नली में फ्लूरोसेंट का लेप चढ़ाये पर्दे जगह-जगह इस प्रकार रखे जाते हैं कि कॅथोड किरणें उन तक सीधे नहीं पहुंच सके परन्तु शीशे से टकराकर इधर-उधर छिटकने वाले कॅथोड किरण उन तक पहुँच सके । इस प्रकार व्यवस्था करने पर पर्दे फ्लूरोसेंट प्रकाश से चमक उठते हैं ।

१८९४ में थॉमसन्‌ ने अपनी डायरी में लिखा था कि निर्वात्‌ नली से कई फीट दूर रखे गये एक शीशे की टयूब की दीवारें भी फ्लूरोसेंस से चमक उठी ।

इसी प्रकार लेनार्ड के प्रयोग में भी अल्युमिनियम की खिड़की पर कॅथोड किरणें टकराने से क्ष किरणे बनती हैं (आजकल इसी उपाय के क्ष किरणें बनाई जाती हैं) फिर भी इनमें से कोई वैज्ञानिक इस नई घटना को परख नहीं सका । ख्याल रहे कि लेनार्ड और थॉमसन दोनों स्वयं माने हुए वैज्ञानिक थे और उनके आविष्कारों के लिये उन्हें क्रमशः १९०५ और १९०६ में नोबेल पुरस्कार भी मिला है ।

क्ष किरणों की खोज की कहानी से हमें शिक्षा मिलती है कि वैज्ञानिक अविष्कारों के लिये आँखे बहुत खुली होनी चाहिए और बुद्धि भी । नई घटना को पकड़ने की दृष्टि जिसमें हो और उस घटना का महत्व समझने की बुद्धि जिसमें हो वही सफल वैज्ञानिक होगा ।

तो अब आओ ऐसे ही और तीन सफल वैज्ञानिकों की कहानी पढ़ें जिन्हें सन्‌ १९०३ का नोबेल पुरस्कार दिया गया ।
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यह पन्ने - मेरी क्यूरी के नाम In memory of Marie Curie

यह पन्ने - मेरी क्यूरी के नाम
रेडियो सक्रियता का नाम सुनते ही पहली जो बात दिमाग में आती है वह है रेडियम जिसका अस्पतालों में रेडियो-थिरॅपी से कैंसर का रोग दूर करने के लिए बहुतायत से उपयोग किया जाता है । साथ ही दिमाग में आती हैं श्रीमती मेरी क्यूरी जिन्होंने रेडियम की खोज की - जो विश्व की पहली महिला नोबुल पुरस्कार विजेता हैं - जो उन थोड़े लोगों में से हैं जिन्हें दो बार नोबुल पुरस्कार मिला - जो उन दो बच्चियों की माँ हैं जिनमें से एक इरिन विश्व की दूसरी महिला नोबुल पुरस्कार विजेता हैं और दूसरी लडकी इवा एक अच्छी साहित्यिक । इवा ने मेरी क्यूरी का चरित्र लिखा है जिसे पढ़कर श्री लाल बहादुर शास्त्री को बड़ी स्फूर्ति मिली थी और उन्होंने स्वयं इस पुस्तक का हिन्दी में अनुवाद किया । ऐसी प्रतिभाशालिनी वैज्ञानिक की जीवनी जाने बिना भौतिक शास्त्र की पढ़ाई अधूरी रह जायेगी । इस पुस्तक का यह अध्याय श्रीमती मेरी क्यूरी को समर्पित है ।
रेडियो-सक्रियता के अनुसंधान की कहानी को पढ़ने से यह शिक्षा मिलती है कि प्रकृति का घटनाक्रम तो चलता रहता है लेकिन शरीर की और मन की आँखे खुली रखो तभी प्रकृति के रहस्यों का पता लग सकता है । दूसरी शिक्षा यह मिलती है कि यदि परिश्रम से घबराहट होती हो तो यह सीखने-सीखाने का, ज्ञानार्जन का, आविष्कार का काम छोड़ दो ।
सन्‌ १८९५ में श्री रोण्टेजेन ने क्ष किरणों को पता लगाया (८ नवम्बर, १८९५) (इस दिनांक से लेकर अगले दो वर्षों तक विभिन्न अखबारों में क्ष किरणों के विषय में जो भी व्यंगचित्र, व्यंगकविताएं और व्यंगलेख निकले उन्हें पढ़कर पता चलता है कि पाश्चात्य देशों में विज्ञान किस कदर जन मानस के दिलो दिमाग का एक अभिन्न अंग है । x-ray और antimatter दो ऐसे वैज्ञानिक आविष्कार हैं जिन पर सर्वाधिक व्यंग-साहित्य लिखा गया है । जनवरी १८९६ में जब रोण्टेजेनकी विभिन्न रिपोर्टें प्रकाशित हुई तो एक वैज्ञानिक की आँखे बहुत खुली हुई थी । इनका नाम था बेक्वेरेल। उनके पिता फ्लुरोसेन्स पर काम कर चुके थे और वह स्वयं भी उसी क्षेत्र में काम कर रहे थे । क्ष किरणों की रिपोर्ट में यह उल्लेख था कि जब डिस्चार्ज टयूब में कैथोड किरणें पैदा होती है और उनके कारण टयूब की दिवारों पर हरे रंग का फ्लुरोसेंस प्रकाश पैदा होता है तब उस जगह से, जहाँ फ्लुरोसेंट प्रकाश उत्पन्न हो रहा है, एक दूसरे प्रकार की किरणें भी निकलती हैं जो क्ष किरणें हैं । यह अदृश्य होती हैं और टयूब के बाहर फैल जाती हैं और यदि उनके रास्ते में फोटोग्राफिक प्लेट काले कागज में लपेट कर रखी जाए ताकि उस पर साधारण दृश्य प्रकाश का कोई प्रभाव न पड़े तो भी क्ष किरणें उसे expose कर देती हैं ।अब फ्लुरोसेंस एक ऐसी क्रिया है जो कि कुछ पदार्थों में पाई जाती है । इन पदार्थों को यदि सूर्यप्रकाश में थोड़ी देर रखा जाए तो ये पदार्थ प्रकाश को अपने में सोख लेते हैं । बाद में उन्हें अंधेरे में रखने पर वे थोड़ी देर तक इस सोखे हुए प्रकाश को उत्सर्जित करते हैं जिस कारण वे अंधेरे में भी कुछ देर चमकते हैं । यह उत्सर्जित प्रकाश एक ही रंग का होता है और किस रंग का होगा यह उस पदार्थ की बनावट पर निर्भर करता है । फ्लुरोसेंट पदार्थ को जरा सी देर भी यदि प्रकाश में नहीं रखा जाए तो उससे अंधेरे में भी कोई प्रकाश नहीं निकलेगा ।
बेक्वेरेल ने सोचा कि हो न हो ये फ्लुरोसेंट पदार्थ उत्सर्जन के समय साधारण प्रकाश किरणों के साथ क्ष किरणे भी उत्सर्जित करते हों जिन्हें अदृश्य होने के कारण अब तक नहीं पहचाना गया हो और इसे जाँचने का तरीका भी बड़ा सरल होगा । किसी फ्लुरोसेंट पदार्थ को सूर्यप्रकाश में रखे फिर उसे अंधेरे में रखकर उसके सामने काले कागज में लिपटी एक फोटोग्राफिक प्लेट रख दो । जो दृश्य प्रकाश निकलेगा वह तो काले कागज को पार कर फोटोग्राफिक प्लेट तक नहीं पहुँच सकता लेकिन क्ष किरणे पहुँच कर उसे expose कर सकती हैं और इस प्रकार उनकी उपस्थिति जानी जा सकती है ।
उस जमाने में जितने भी फ्लुरोसेंट पदार्थ बेक्वेरेल को मालूम थे उन सभी पर यह प्रयोग किया गया और निष्कर्ष यह निकला कि किसी भी फ्लुरोसेंट पदार्थ से अदृश्य किरणें नहीं निकलती हैं सिवा दो तीन पदार्थों के -पोटेशियम युरेनियम सल्फेट, सोडियम यूरेनियम सल्फेट, युूरेनियम नाइट्रेट इत्यादि अर्थात्‌ केवल ऐसे ही फ्लुरोसेंट पदार्थों से क्ष किरणें निकलती हैं जिनमें युरेनियम हो । यह रिपोर्ट प्रकाशित हुई और चूंकि यह अभी तक निश्च्िात रूप से नहीं बताया जा सकता था कि यह किरणें और रोण्टेजेन के प्रयोगों में निकलने वाली क्ष किरणे एक ही हैं अतः इन्हें बेक्वेरेल किरणों का नाम दिया गया ।
इसके बाद बेक्वेरेल ने कई प्रयोग युरेनियम के फ्लुरोसेंट यौगिकों पर किए । तब नई बात सामने आई । सूर्यकिरणों को सोखने पर ये पदार्थ फ्लुरोसेंट प्रकाश तो बहुत कम देर तक उत्सर्जित करते हैं लेकिन बेक्बेरेल किरणों का उत्सर्जन कई दिनों तक होता रहता है ।
बेक्सेरेल के प्रयोग होते गए । अचानक ऐसा भी हुआ जब कई दिनों तक आकाश बादलों से ढका होने के कारण युरेनियम के वे नमूने जिन पर प्रयोग होने थे, सूर्यप्रकाश में नहीं रखे गए । सिफ उन्हें काले कागज में लिपटे फोटोग्राफिक प्लेट के पास रखा गया था । बेक्वेरेल के प्रयोगों के मुताबिक इन फोटोग्राफिक प्लेट्स को develop करके देखना एक फिजूल बात थी । फिर भी बेक्वेरेल ने इस संभावना से मुँह नहीं मोड़ा । एक प्लेट को उसने डेवलप कर ही डाला और उसे घोर आश्चर्य हुआ क्योंकि वह प्लेट बेक्वेरेल किरणों से expose हो चुकी थी । इससे यह निष्कर्ष निकला कि बेक्वेरेल किरणों के उत्सर्जन के लिये इन पदार्थों को सूर्यप्रकाश में रखना आवश्यक नहीं है । अर्थात्‌ यह क्रिया फ्लुरोसेंस की क्रिया से कोई नितान्त भिन्न क्रिया है । दो वर्ष बाद श्रीमती मेरी क्यूरी ने इस क्रिया का नाम रखा रेडियो-सक्रियता ।
फिर तो बेक्वेरेल ने ऐसे युरेनियम युक्त पदार्थों पर भी प्रयोग किए जो फ्लुरोसेंट नहीं थे । फिर भी उनमें से अदृश्य किरणें निकलती हुई पाई गई और यह सिद्ध हो गया कि बेक्वेरेल किरणों का उत्सर्जन युरेनियम तत्व का ही एक गुण है । इस उत्सर्जन का फ्लुरोसेंस से कोई संबंध नहीं ।
करीब १८९७ में मेरी क्यूरी ने इन प्रयोगों को आगे चलाया । मेरी क्यूरी का (जिनका नाम था मार्या स्कलोदोवस्का था) जन्म पोलैंड की राजधानी वार्सा के नजदीक एक गांव में ४ जुलाई १८६७ ( 1 ) को हुआ । घर की गरीब परिस्थिति में वार्सा में उनकी पढ़ाई पूरी नहीं हो पा रही थी । अतः पच्चीस वर्ष की उम्र में वह अकेली ही सफर करती हुई पेरिस आई । पेरिस में कभी बच्चे संभालने वाली गवर्नेस का काम करना, कभी टयूशन पढ़ाना आदि उपायों से थोड़ा-थोड़ा धनसंचय कर वे पढ़ती रहीं । इस दौरान उनके आधे से अधिक दिन खाली पेट ही गुजरे । फिर भी पढ़ाई से वे पीछे नहीं हटीं । उनका यह अदम्य विश्र्वास था प्रत्येक मनुष्य कुछ न कुछ कर दिखाने के लिए दुनिया में आता है और उसे कठिन-से-कठिन परिश्रम की परवाह किए बिना वह कर दिखाना चाहिए जिस काम के लिए वह दुनिया में आया है ।
१८९५ में मार्या की शादी पेरी क्यूरी से हुई । पेरी स्वतः भौतिकी के अध्यापक थे । उन्होंने पिझो इलैक्ट्रिसिटी की अर्थात्‌ क्वार्टर क्रिस्टल के आयतों पर एक विशिष्ट रूप से दबाव डालने पर पैदा होने वाले विद्युतीय आवेश की खोज की थी और साथ ही चुम्बकत्व के कुछ आविष्कारों के कारण भी उन्हें मान्यता मिल चुकी थी । फिर भी उनकी गरीबी की परिस्थिति कायम थी और जिस स्कूल में वह पढ़ाते थे वह भी छोटा सा स्कूल था जिसके पास आधुनिक प्रयोगशाला नामक कोई कमरा न था । इसके बावजूद पेरी के प्रयोग चलते रहते थे और मेरी भी एक बच्ची इरीन की माँ बन चुकने पर भी उनका साथ दिया करती थी । साथ ही घर का खर्चा चलाने के लिए एक स्कूल में बच्च्िायों को पढ़ाने का काम भी करती थी । उन पर धुन सवार थी डॉक्टरेट करने की । बेक्वेरेल के प्रयोगों को पढ़ने पर उन्होंने इस नये विषय को अपने प्रयोगों के लिए चुना ।
बेक्वेरेल किरणों के विषय में अब तक यह पता चल चुका था कि इन किरणों के द्वारा वातावरण में स्थित हवा आयनीकृत (ionized) हो जाती है । मेरी ने इस आयनीकरण को (ionization) इलैक्ट्रोस्कोप नाम एक उपकरण द्वारा मापा और इसका उपयोग युरेनियम के किसी भी पदार्थ से निकलने वाली बेक्वेरेल किरणों की प्रखरता (intensity) को जानने के लिए किया । मेरी ने पाया कि हर हालत में किसी भी पदार्थ से निकलने वाले बेक्वेरेल किरणों की प्रखरता (intensity) इस बात पर निर्भर करती है कि उसमें युरेनियम के कितने परमाणु उपस्थित हैं । पदार्थ की किसी भी भौतिक या रासायनिक अवस्था से इसमें कोई अन्तर नहीं पड़ता है । दबाव, गर्म करना, दूसरे रासायनिक यौगिक बनाना आदि किसी भी बात से इन किरणों की प्रखरता में कोई अन्तर नहीं पड़ता है । अर्थात्‌ बेक्वेरेल किरणों का उत्सर्जन युरेनियम के परमाणु का आन्तरिक गुण है और वह सारी बाहरी प्रक्रियाएँ जिनके द्वारा किसी तत्व की भौतिक स्थिति में अन्तर आ सकता है, परमाणु तक पहुँचकर निष्क्रिय हो जाती हैं और उत्सर्जन के गुण को नहीं बदल सकती हैं । अगले प्रयोगों में मेरी को यह भी पता चला कि न केवल युरेनियम के यौगिक बल्कि थोरियम के यौगिक भी बेक्वेरेल किरणों का उत्सर्जन करते हैं और वहाँ भी किरणों की प्रखरता थोरियम के परमाणुओं की संख्या पर निर्भर करती हैं ।
अन्यत्र भी इस प्रक्रिया की उपस्थिति या अनुपस्थिति खोजने की धुन में मेरी ने निश्चय किया कि वे ऐसे प्रत्येक पदार्थ की जाँच करेंगी जिसमें युरेनियम है । ऐसे ही दो अयस्कों या खनिजों (ores) पिचब्लेंड और चार्कोलाइट की जाँच में उन्हें पता चला कि इनमें उपस्थित युरेनियम परमाणुओं की तुलना में उससे निकलने वाले उत्सर्जन की प्रखरता बहुत अधिक है-करीब ४ गुणा अधिक है । ऐसी स्थिति में उनकी तीव्र वैज्ञानिक बुद्धि काम आई । उन्होंने निष्कर्ष निकाला कि हो न हो चार्कोलाइट और पिचब्लेंड में कोई ऐसा तत्व भी है जिसकी अब तक खोज नहीं हुई है लेकिन जिसमें रेडियो सक्रियता के गुण मौजूद हैं । यह कहने के बाद की कोई नया तत्व मौजूद है, यह आवश्यक हो गया कि पिचब्लेंड से उसे अलग कर दुनिया के सामने रखा जाए । इन प्रयोगों में पेरी ने भी हाथ बंटाना आरंभ किया । अप्रैल १८९८ से जुलै १८९८ तक तीन महीनों के लगातार प्रयोगों के बाद मेरी और पेरी क्यूरी ने एक नए तत्व का पता लगाया जो रेडियोसक्रिय था - अर्थात्‌ जिससे बराबर किरणें उत्सर्जित हुआ करती थी जैसे युरेनियम से । इस तत्व के रासायनिक गुण बिस्मथ के गुणों से मिलते हुलते थे । अपनी मातृभूमि की याद में मेरी ने इसका नामकरण किया पोलोनियम । इन्हीं प्रयोगों के दौरान मेरी ने पाया कि पोलोनियम निकालकर बचे हुए पिचब्लेंड में कोई एक रेडियो-सक्रिय-पदार्थ और भी है । दिसम्बर १८९८ तक इस नये तत्व की खोज भी उन्होंने की जिसके गुण बेरियम से मिलते-जुलते हैं । इसे नाम दिया रेडियम । क्ष किरणों की ही तरह रेडियम थिरॅपी के उपकरणों के बिना आज का कोई भी आधुनिक अस्पताल परिपूर्ण नहीं माना जाता है । इतना यह रेडियम महत्वपूर्ण सिद्ध हुआ ।
मेरी और क्यूरी ने पोलोनियम और रेडियम का पता तो लगा लिया लेकिन उसे पिचब्लेंड से अलग करने का काम अभी बाकी ही था । यह चुनौती क्यूरी दंपति ने स्वीकार की ।
तुम्हे यह जानकर आश्चर्य होगा कि मेरी को यह सारे प्रयोग करने के लिये कोई आधुनिक प्रयोगशाला उपलब्ध नहीं थी । पेरी के ही स्कूल के एक छोटे से सीलन भरे गोदाम में मेरी ये प्रयोग किया करती थी । अगले सात आठ वर्षों तक मेरी के प्रयोग ऐसे ही सीलन भरे कमरों में, टीन या खपरैल की टूटी-फूटी शेड के नीचे हुआ करते थे और प्रयोग भी कैसे-कई-कई किलो पिचब्लेंड को अलग-अलग ऍसिडों में घोलना निथारना, छानना, बड़ी-बड़ी कड़ाहियों में उबालना, उबलते हुए मिश्रण को अनवरत रूप से काठ के चम्मचों से चलाते रहना -लेकिन इस परिश्रमों से मेरी और पेरी बराबर जूझते रहे । संयोग से ऑस्ट्रिया की एक कंपनी ने जो पिचब्लेंड से युरेनियम निकालकर उसे शीशे के कारोबार में काम लाती थी, युरेनियम निकले हुए कई टन अयस्क मेरी को मामूली सी कीमत पर बेचना स्वीकार किया । इस पिचब्लेंड पर प्रयोग करते करते चार वर्ष बीत गए । इन चार वर्षों में मेरी और पेरी को जो मेहनत करनी पड़ी उसका अन्दाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि टनों पिचब्लेंड में से अन्ततः १०० ग्राम शुद्ध रेडियम क्लोराइड निकल सका । लेकिन इसकी उत्सर्जन की तीव्रता युरेनियम उत्सर्जन की तीव्रता से 2 x106 गुना अर्थात्‌ बीस लाख गुना अधिक थी ।
मेरी और पेरी क्यूरी ने पाया कि रेडियम से निकलते उत्सर्जन के कारण प्रयोगशाला में रखे शीशे के बर्तन एक हल्की सी फ्लूरोसेंस जैसी ही आभा से चमकते रहते हैं । यह है एक मजे की बात । बेक्वेरेल ने सोचा था कि फ्लूरोसेंस के कारण क्ष किरणें निकलती हैं, और युरेनियम से निकलने वाली किरणें क्ष किरणें ही हैं । बाद में उसने पाया कि युरेनियम से निकलने वाली किरणें क्ष किरणें नहीं हैं । और अब मेरी ने पाया कि फ्लूरोसेंस के कारण यह किरणें नहीं निकलतीं बल्कि न किरणों के कारण फ्लूरोसेंस पैदा होता है ।
पिरियॉडिक टेबुल में ८८वीं जगह पर रेडियम फिट बैठता है । १९०३ के दौरान Andre Deburne ने ८९वीं जगह पर बैठने वाले ऍक्टिनियम की खोज की जो युरेनियम और रेडियम की तरह रेडियो सक्रिय है (अर्थात्‌ उससे उसी प्रकार उत्सर्जन निकलते हैं जिस प्रकार युरेनियम या रेडियम से) । टेबुल में ९०वीं जगह पर फिट बैठता है थोरियम, ९२वीं जगह पर युरेनियम और जगह पर फिट बैठता है थोरियम ९२वीं जगह पर युरेनियम और वीं जगह पर पोलोनियम । ९१वीं जगह पर फिट बैठने वाले प्रोटॅक्टिनियम की खोज करीब १५ वर्षों बाद ऑटो हान ने की (यह भी रेडियो सक्रिय तत्व है ।)
रेडियो सक्रियता की खोज और इसके विषय में बहुतायत से किये गये प्रयोगों के लिये श्री बेक्वेरेल, श्री पेरी क्यूरी और श्रीमती मेरी क्यूरी को सन्‌ १९०३ में भौतिक शास्त्र का नोबल पुरस्कार एकत्रित रूप से दिया गया । नोबल पुरस्कार का वितरण बड़े धूमधाम से किया जाता है । स्वीडन की राजधानी स्टॉक होम में संसार के गण्यमान्य वैज्ञानिकों बुलाया जाता है नोबल पुरस्कार विजेताओं के भाषण होते हैं । उन्हें कई अन्य सम्मान दिए जाते हैं । लेकिन पेरी और मेरी अपने प्रयोगों की धुन में इतना थक चुके थे कि वे स्वतः स्टॉकहोम जाने में असमर्थ रहे । साथ ही अपनी सारी पूंजी प्रयोगों में लगा देने के कारण वे निर्धन भी थे । नोबल पुरस्कार के रूप में मिलने वाले पैसे का उपयोग भी उन्होंने प्रयोगों के नये-नये सामान और उपकरण खरीदने में ही किया ।
मेरी के सामने अभी एक प्रयोग अधूरा ही था । पिचब्लेंड में से उन्होंने रेडियम क्लोराइड तो अलग निकाला था । लेकिन अब उनका ध्येय था शुद्ध रेडियम को अलग निकालना जिसके लिए उन्होंने अगले ८ वर्षों तक कठिन से कठिन प्रयोग किए । इसी दौरान उन्हें मान, प्रतिष्ठा, मिलते गए । लेकिन कुछ ही हद तक । १९०६ में एक तांगे के चपेट में आकर पेरी क्यूरी की मृत्यु हुई । इस समय उनकी बड़ी बच्ची इरीन थी ९ वर्ष की और छोटी बच्ची इवा केवल २ वर्ष की । बेक्वेरेल इस दौरान क्यूरी परिवार के अच्छे मित्र बन चुके थे परन्तु उनका निधन भी १९०८ में आकस्मिक रूप से हुआ ।
जमाना सन्‌ १९०६ का था । मेरी को युनिवर्सिटी में प्राध्यापक के पद पर लेने के विषय में बड़े वाद-विवाद हुए क्योंकि उस जमाने में महिलाओं को फ्रांस जैसे प्रगत देश में भी युनिवर्सिटी में पढ़ाने का काम नहीं करने दिया जाता था । फिर भी उनके नोबल-पुरस्कार की ओर देखकर और संभवतः पेरी की मृत्यु के कारण उन्हें प्राध्यापक के रूप में स्वीकार किया गया । ऐसा ही मौका दुबारा आया १९११ में जब पेरिस की रॉयल अकादमी ऑफ सायन्स ने उन्हें अपना 'फेलो' बनाने से इसलिये इंकार कर दिया कि वे महिला थीं । मेरी का सामना न केवल निर्धनता से था बल्कि रूढ़िवादिता से भी । इस घटना के चार ही महीने पश्चात्‌ जब उस वर्ष के नोबल पुरस्कारों की घोषणा हुई तो उस सूची में फिर एक बार मेरी क्यूरी का नाम था - इस बार रसायनशास्त्र का पुरस्कार एक नये तत्व रेडियम की खोज के लिए ।

इस दौरान रेडियम के औषधि गुणों पर अन्वेषण प्रारंभ हो चुके थे और अस्पतालों में रेडियम थिरॅपी का उपयोग भी किया जाने लगा था । तुम्हें जानकर आश्चर्य होगा कि किसी भी अयस्क से शुद्ध रेडियम निकालने की विधि इतनी कठिन है कि मेरी के बाद आज तक किसी ने दुबारा शुद्ध रेडियम नहीं बनाया । सारी प्रयोगशालाओं में और अस्पतालों में रेडियम ब्रोमाइड का उपयोग किया जाता है ।
मेरी की कहानी यहीं समाप्त नहीं होती और न रेडियम की । फ्रांस की सरकार ने मेरी की अध्यक्षता में रेडियम इंस्टीटयूट की स्थापना की जहां अपने अन्तिम दिनों तक मेरी काम करती रहीं । इसी इंस्टीटयूट में काम करते हुए उनकी वैज्ञानिक पुत्री इरीन की शादी फ्रेडरिक ज्युलियट नाम वैज्ञानिक से हुई । इन दोनों के अन्वेषण का विषय भी था रेडियो सक्रियता - लेकिन मेरी और पेरी से एक कदम आगे । उनका विषय था कृत्रिम रेडियो-सक्रियता । वह तत्व जो प्राकृतिक रूप में रेडियो-सक्रिय नहीं हैं उन्हें कृत्रिम बाहरी उपायों से रेडियो सक्रिय बनाने की विधि दोनों ने खोजी । इसके लिए १९३२ में उन्हें उसी पेरिस अकादमी ने सम्मानित किया जो एक बार मेरी को अपना फेलो बनाने में असमर्थ थे । इस आविष्कार के लिए इरिन और फ्रेडरिक को १९३५ में नोबल पुरस्कार दिया गया । विज्ञान का नोबल पुरस्कार पाने वाली इरीन दूसरी और अन्तिम महिला है ।
यह जानना आवश्यक है कि कृत्रिम रेडियो सक्रियता का महत्व क्योंकर है । रुदरफोर्ड ने रेडियो सक्रियता की व्याख्या (जिसे हम अगले अध्याय में पढ़ेंगे) करते हुए यह बताया कि कोई रेडियो सक्रिय तत्व जब बेक्सेरेल किरणों का उत्सर्जन करता है तो इस प्रक्रिया के दौरान उसका परमाणु भार और परमाणु संख्या बदल जाते हैं । अर्थात्‌ वह तत्व बदलकर दूसरा तत्व बन जाता है । प्रश्न यह है कि यह बेक्वेरेल किरणें क्या हैं, कहां से आती हैं और किस प्रकार एक तत्व से निकलकर उसे दूसरे तत्व में बदल देती हैं लेकिन दूसरी एक बात अधिक गहन है । चूंकि रेडियो-सक्रियता के कारण एक तत्व दूसरे तत्व में बदल जाते हैं, क्या वह संभव नहीं कि किसी एक तत्व को जो प्राकृतिक रूप में रेडियो-सक्रिय नहीं है - बाहरी उपायों से रेडियो सक्रिय बनाया जाए ताकि अपनी इस रेडियो सक्रियता के कारण कुछ किरणें उत्सर्जित करने के बाद वह दूसरे तत्व मं बदल जाए । यानी हम उसी पुरानी काल्पनिक पारसमणी की कहानी पर आ पहुंचते हैं जिसके द्वारा लोहे लोहे को सोना बनाया जा सकता है । इस कल्पना को सही कर दिखाया इरीन और फ्रेडरिक ने । इस प्रकार अन्ततः एक पारसमणी की खोज हुई । यह पारसमणी उस सोने से कई गुना कीमती है जो विश्र्व के तारे लोहे को सोना बनाने पर मिलता ।
जुलाई १९३४ में मेरी क्यूरी की मृत्यु हुई । रेडियम से उत्सर्जित होने वाले किरणों के अत्यधिक संसर्ग से उन्हें ब्लड कैंसर हो गया था । रेडियम को मेरी क्यूरी ने ढूंढकर निकाला । रेडियम ने उन्हें प्रतिष्ठा के सर्वोच्च शिखर पर बैठाया और रेडियम के उत्सर्जन से ही उनकी मृत्यु हुई । इसी रेडियम-उत्सर्जन की सीमित मात्रा से हम आज कैंसर का इलाज करते हैं ।
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अनुक्रम तथा परमाणु - जिसे टूटना नहीं था

परमाणु - जिसे टूटना नहीं था


पुराने कवियों ने कहा है -'अथातो ब्रहा जिज्ञासा '। जिज्ञासा करना, प्रश्न पूछना, नये-नये सिद्धांत ढूंढना, नये देश, नई बातें खोज निकालना, मनुष्य का जन्मजात स्वभाव है । इसी खोजबीन की प्रवृत्त्िा ने उसे आज यहां तक ला पहुंचाया है जहां से वह समुद्र तल में या चांद पर जा सकता है, सितारों की खबर रख सकता है ।
हजारों शताब्दियां पहले से ही यह खोजबीन शुरू हुई कि संसार कैसे बना है । लोगों ने देखा कि हर बड़ी वस्तु छोटी-छोटी कई वस्तुओं से बनी है । ईटों से मकान बना है, धागे से कपड़ा बनता है और बूंद बूंद से सागर बनता है ।

चीनी का एक बड़ा सा ढेला तुम तोड़ो तो चीनी के छोटे-छोटे टुकड़े मिलेंगे । उन्हें और अधिक तोड़ो तो और छोटे कण मिलेंगे जिन्हें हम चक्की में पीसकर या हथोड़े से पीटकर भी नहीं तोड़ सकते । लेकिन प्रकृति के पास कुछ और भी तरीके हैं उन्हें तोड़ने के । मसलन पानी में घोलना । तब टूटकर वह कण इतना छोटा हो जायेगा कि तुम उसे आँख से देख भी नहीं सकते, खुर्दबीन (माइक्रोस्कोप) से भी नहीं । फिर भी उसे चीनी ही कहेंगे । क्योंकि वह चीनी की तरह मीठा और हर बात में चीनी के समान ही होता है ।

यह बात जब समझ में आई तो प्राचीन काल के वैज्ञानिकों ने सोचना शुरू किया । क्या वह टूटने का क्रम अनन्त रूप से चलता रहेगा या कोई ऐसी भी स्थिति होगी जिसके आगे किसी छोटे टुकड़े को विभाजित नहीं किया जा सकता है ?

हमारे पुराने ग्रंथों में कणाद ऋषि की चर्चा आती है । उनका कहना था कि संसार के हर पदार्थ के अपने-अपने छोटे-छोटे कण होते हैं । उनका विभाजन नहीं हो सकता । ग्रीस में भी एपिक्युरस, डेमोक्रिटस्‌ आदि विद्वानों ने यही मत दोहराया था ।

तुम उस जमाने में होते तो अगला प्रश्न क्या पूछते ? यही कि आखिर कितने प्रकार के कण होते हैं? यदि हर अलग अलग पदार्थ का अलग अलग कण होता है तब तो गिनती बहुत बढ़ जायगी । कैसे उन्हें गिना जा सकेगा? कैसे उन्हें पहचाना जा सकेगा ? किसी ने कहा कि सारे कण एक ही प्रकार के होते हैं। जब वह अलग अलग संख्या में इकठ्ठे होते है तो अलग अलग पदार्थ बनते हैं । पर यह बात भी लोगों को जँची नहीं। क्यों कि उस जमाने में भी उन्हें यह पता था कि सरलता ही विज्ञान का पहला नियम है । तब एक ग्रीक विद्वान एम्पीडोकल्स ने कहा कि सारे पदार्थ चार वस्तुओं से बने हैं । हवा, पानी, मिटटी और आग । इन चारों को मूलतत्व या तत्व कहा गया । उसने कहा कि इनमें से हरेक के अलग अलग कण होते हैं उन्हे अलग अलग अनुपात में मिलाने से बाकी सारे पदार्थ बनते हैं। उससे पहले हमारे देश के विद्वानों ने पांच तत्व बताये, हवा, पानी, मिटटी ,आग और आकाश । तुमने वह छन्द पढ़ा होगा -

' क्षिति, जल, पावक, गगन, समीरा
पंच रचित यह अधम सरीरा। '
अब जादूगारों की बारी आई । उन्होंने सोचा कि यदि लोहा भी इन्हीं पांच 'तत्वों' से बना है और सोना भी, तब तो लोहे को सोने में बदलना कुछ मुश्किल नहीं होना चाहिये । तुमने ऐसी कई कहानियाँ पढ़ी होंगी । पारसमणि की कहानी भी ऐसी ही एक कहानी है । पर यह सब कहानियाँ ही है। कोई भी जादूगार लोहे से सोना नही बना सका। फिर भी पदार्थ, मूलतत्व और कण का संबंध तय हो ही गया। पाँचों मूलतत्व के अपने अपने कण होंगे और वे अलग अलग अनुपात में मिलेंगे तो बाकी पदार्थ बनेंगे।
धीरे धीरे लोगों ने यह सोचना शुरु किया कि शायद यह संसार पांच से अधिक तत्वों से बना है। उन्होंने यह भी सोचा कि हो न हो लोहा, सोना इत्यादि वस्तुओं से ही मिटटी, पानी आदि बने हैं। लेकिन किमियागर (अल्केमिस्ट) कहलानेवाले कुछ लोग अब भी पुरानी पांच तत्वों वाली धारणा को मानते थे और घंटो प्रयोगशाला में बैठकर लोहे को सोना बनाने के उपाय ढूँढ़ा करते थे। अन्त में जब सन १७६६ में लावाजिये ने हायड्रोजन ओर ऑक्सीजन गैसों को मिलाकर पानी बनाया तो यह धारणा टूट गई। वैज्ञानिको ने निर्विवाद स्वीकार किया कि मिट्टी आदि स्वतः मूलतत्व नहीं है । उन्होनें नये सिरे से मूलतत्वों की सूची बनानी शुरु की जिसमे संसार को बनानेवाले तत्वों को बहुत सोच सोच कर और छानबीन कर शामिल किया गया । इनमे से कुछ नाम तुम रोज सुनते होगे। जैसे लोहा, तांबा, सोना, चांदी, आयोडिन (दवाई का टिंक्चर आयोडिन नही।) ऑक्सीजन, नाईट्रोजन, यूरेनियम इत्यादि । कुछ नाम तुम्हारे लिये बहुत अजनबी होंगे जैसे स्कॅन्डियम, मॉलिबडेनम इत्यादि । पर यह तत्व उन दिनों में भी वैज्ञानिको को मालूम थे और उनकी जोरदार खोज हुआ करती थी । तब तक पदार्थो को छोटे छोटे टुकड़ो में तोडने के उपाय भी मालूम हो गये थे, जैसे भाप बनाना । वैसे तत्वों की खोज अभी भी जारी है । आजतक वैज्ञानिकों की लिस्ट में करीब १०२ तत्व हैं ।

यानी संसार की सभी वस्तुएँ १०२ तत्वों से बनी है (जैसा कि हम लोग अबतक की खोज के आधार पर जानते है।) १९११ से पहले जब तक लोग मानते थे कि परमाणु को तोड़ा नही जा सकता तब तक इन नये तत्वों की बड़ी धूम थी। क्योंकि वैज्ञानिकों का यह विश्र्वास था की इन खोजों से ही परमाणु के गुणो का सही सही पता चल सकेता है । पर अभी थोड़ी देर के लिये यही मान लो कि परमाणू को तोड़ा नहीं जा सकता और कोई भी वैज्ञानिक नये तत्व की खोज नही करेगा। (तुम सोच रहे होगे कि यह परमाणु कंहा से आया ?)

हाँ, तो संसार की सभी वस्तुएॅ १०२ तत्वों से बनी है। अब वही पुरानी पांच तत्वों वाली बात याद करो कि हर तत्व के अपने अपने अलग अलग छोटे कण है जिन्हे तोड़ा नही जा सकता । इन्ही कणों को अब हम परमाणु कहते है। अर्थात्‌ इन तत्वों के परमाणु अलग अलग संख्या में आपस में मिलकर अलग अलग पदार्थ बनाते है ।

जैसे नमक को लो । यह पदार्थ दो तत्वों से बना है । सोडियम और क्लोरिन । सोडियम का एक परमाणु और क्लोरिन का एक परमाणु मिलकर नमक का एक बहुत छोटा सा कण बनाते हैं । इस कण को नमक का अणु कहते हैं । सोडियम के कई परमाणुओं का ढेर लगाने पर तुम्हें सोडियम का एक टुकड़ा मिलेगा (इतना बड़ा जिसे आंख से देख सको ) इसी प्रकार नमक के कई अणुओं का ढेर लगाने पर नमक का एक टुकड़ा देखने को मिलेगा ।

नमक के अणु को अणु क्यों कहा जाए ? इसे नमक का परमाणु भी तो कह सकते हैं । बात यह है कि नमक एक तत्व नहीं है, बल्कि दो तत्वों से बना एक पदार्थ है । इसका एक अणु तोड़ने पर दो परमाणु मिलेंगे । नमक के अणु में सारे गुण नमक के समान होंगे लेकिन उसे तोड़ने पर सोडियम या क्लोरिन के परमाणु में नमक के गुण नहीं होंगे । अणु कहने से यह झलकता है कि वह दो या अधिक परमाणुओं से बना है ।
अणु किसी पदार्थ का वह सबसे छोटा टुकड़ा है जिसमें उस पदार्थ के सारे गुण हों और जिसे तोड़ने पर उसमें उस पदार्थ के गुण नहीं रहे । यही कण है जिसकी चर्चा कणाद ऋषि ने की थी । परमाणु किसी तत्व का वह सबसे छोटा टुकड़ा है जिसे और अधिक नहीं तोड़ सकते । (यानी १९११ के पहले)

सन्‌ १८१५ में प्राउट ने यह खोज की कि जब दो पदार्थों को आपस में मिलाने पर रासायनिक प्रतिक्रिया
होती है तो यह प्रतिक्रिया दो अणुओं के बीच नहीं होती बल्कि सभी अणु अपने-अपने परमाणुओं में टूट जाते हैं और प्रतिक्रिया दो परमाणुओं के बीच होती है । अणु और परमाणु के बीच यह भी एक महत्वपूर्ण अन्तर है ।

तुम अंदाज लगा सकते हो कि एक परमाणु का आकार कितना बड़ा है । इंजेक्शन लगाने वाली सिरिंज में साधारणतः २ घन सेंटीमीटर (सी.सी.) पानी अटता है । इस सिरिंज को (यानी २ सी.सी. को) ऑक्सीजन से भरने के लिए ऑक्सीजन के करीब-करीब १,३०,००,,००,००,००,००,००,००,००,००० परमाणुओं की जरूरत पड़ेगी । गणित की भाषा में इस संख्या को इस तरह लिखते हैं ????? परमाणु । (१० का अर्थ है १० के आगे २ शून्य बैठाओ यानी १०० (१० का अर्थ है १००० इत्यादि) छोटा अणु साधारणतः दो चार परमाणुओं से बनता है । जैसे पानी के अणु में कुल तीन परमाणु होते हैं । ऑक्सीजन का 1 और हाईड्रोजन के २ चीनी का अणु बनता है । चीनी के एक अणु में ४५ परमाणु होते हैं । १२ कार्बन के २२ हाइड्रोजन के और ११ ऑक्सीजन के । लेकिन एक बात जाहिर है । कोई अणु चाहे १००० परमाणुओं से ही क्यों न बने, उस पदार्थ के एक छोटे से टुकड़े को बनाने के लिए ताकि तुम उस पदार्थ को देख सको, अरबों, करोड़ों की तादात में अणुओं की जरूरत होगी । इन अणुओं को तुम देख भी नहीं सकते कि उन्हें गिन सको । जरा सोचो उन वैज्ञानिकों की बुद्धि को जिन्होंने इसे भी गिनने का उपाय खोज ही लिया । ऐसे वैज्ञानिकों में डाल्टन, ऍवेगाड्रो, माईकेल फैरेडे इत्यादि प्रमुख है ।

अगला सवाल कि वह सारे अणु इकठ्ठे क्यों रहते हैं ? बात यह है कि जब किसी पदार्थ के दो अणु इकठ्ठे आते हैं तो मानो हाथ में हाथ डालकर चलने लगते हैं । (यह न सोचना कि अणुओं के हाथ होते हैं) तीसरा अणु उनके पास आ जाए तो वह भी साथ मिल जाता है । इस प्रकार एक झुंड सा बन जाता है । लेकिन झुंड कितना भी बड़ा क्यों न हो, दो अणुओं के बीच कुछ न कुछ अन्तर हमेशा रह जाता है । पदार्थों का ठोस द्रव या गैस होना उनके अणुओं के अन्तर पर निर्भर है । अन्तर कम हो तो पदार्थ ठोस रहता है । अधिक हो तो द्रव बन जाता है, और भी अधिक हो तो गैस बनता है । अणुओं के अन्तर को बढ़ाने का सबसे आसान उपाय है गरम करना । इसीलिए बरफ को गरम करने से पानी बनता है और पानी को गरम करने से भाप ।

अणुओं के बीच अन्तर यदि कम हो तो एक बड़े झुंड में दूसरा झुंड आसानी से नहीं चिपकाया जा सकता । जैसा कि ठोस पदार्थों में होता है । लीेकिन पानी के अणुओं में अन्तर अधिक है इसलिए एक बाल्टी पानी में एक लोटा पानी आराम से मिलाया जा सकता है । बर्फ के बड़े टुकड़े में से छोटा टुकड़ा निकालने के लिए उसे तोड़ना पड़ता है ।

एक पदार्थ के अणु दूसरे पदार्थ के अणुओं को भी अपनी और खींच सकते हैं । इसी खिचाव के कारण शीशे पर पानी की बूंद चिपकती है ।

द्रव पदार्थों के अणुओं में एक और शक्ति होती है । वह दूसरे अणुओं के झुंड को तोड़ सकते हैं । जब हम पानी में चीनी घोलते हैं तब असल में यह होता है कि चीनी के जो अणु पहले इकठ्ठे थे वह पानी की इस शक्ति के कारण अब अलग-अलग हो जाते हैं और पानी के दो अणुओं के बीच जो खाली जगह है उसमें घुसकर बैठ जाते हैं । इसी कारण पानी में चीनी घोलने से उसका आयतन नहीं बढ़ता । जिस पदार्थ के अणुओं को पानी अलग नहीं कर सकता वह पदार्थ पानी में नहीं घुलेगा । जैसे लकड़ी ।
दो अणुओं को एक दूसरे से अलग करना इतना मुश्किल नहीं है जितना एक अणु को तोड़कर उसके परमाणुओं को अलग करना । किसी तत्व के दो परमाणु आपस में मिलकर उसी तत्व का एक अणु बनाते है । गैसो में प्रायः ऐसा होता है । जैसे हाईड्रोजन, ऑक्सीजन, नाईट्रोजन इत्यादि में ।

हर एक परमाणु दूसरे हर तत्व के परमणु को आकर्षित कर सकता हो यह बात नहीं । किन्हीं दो तत्वों के परमाणु आपस में अधिक तेजी से जुड़ते हैं । किसी के कम तेजी से । यह बहुत बड़ा सवाल था, कि ऐसा क्यों होता है और इसका उत्तर जानने के लिए वैज्ञानिकों को बहुत प्रतीक्षा करनी पड़ी ।

यदि तुम १८९६ के पहले के जमाने में प्रोफेसर होते और परमाणु पर भाषण देने जाते तो तुम्हारा भाषण कुछ इस प्रकार का होता है :-
हर तत्व के अपने-अपने परमाणु होते है । परमाणुओं को तोड़ा नहीं जा सकता । एक तत्व के सभी परमाणु आपस में बिलकुल समान होते है और अलग-अलग तत्वों के परमाणु अलग-अलग दो या अधिक परमाणु मिलकर एक अणु बनाते है ।
अलग-अलग तत्वों के परमाणुओं की रासायनिक क्रियाशक्ति (दूसरे तत्वों के साथ प्रतिक्रिया करने की क्षमता) अलग-अलग होती है । एक तत्व के परमाणु का वजन दूसरे तत्व के परमाणु के वजन से अलग होता है । यह बातें सबसे पहले डाल्टन ने एक साथ बताई इसलिए इन्हें डॉल्टन का सिद्धांत या डाल्टन का परमाणुवाद कहा जाता है ।
यह परमाणु का वजन (परमाणु-भार) भी अजीब चीज है । एक परमाणु जिसे देखा भी नहीं जा सके उसे तोला कैसा जा सकता है ? लेकिन वैज्ञानिकों ने उसके भी उपाय ढूंढ ही लिये और देखा कि हाइड्रोजन का परमाणु सबसे हल्का होता है । इन वजनों के लिए एक अलग इकाई बनी जिसे कहते है एटामिक यूनिट । हाइड्रोजन के एक परमाणु का भार एक एक एटमिक यूनिट के बराबर होता है । एक एटमिक यूनिट एक ग्राम का करीब ???वां हिस्सा होता है ।

यह सिद्धांत एक बार तय हो जाने पर तो अलग-अलग पदार्थों के परमाणु भार निकालना उनके रासायनिक सूत्र निश्च्िात करना इत्यादि बहुत सरल हो गया । जिन वैज्ञानिकों ने यह प्रयोग किए । (पुठील पानावरून) उनमें बॉयल डॉल्टन विक्टर मेयर आदि प्रमुख है । परमाणु भार जानकर ही हम तत्वों की अलग-अलग पहचान कर सकते हैं ।

लाहाजिये के प्रयोग में यह बताया कि पानी की रचना हाइड्रोजन एवं ऑक्सीजन के मिलाने से हुई है । अतः डाल्टन ने जिसका कहना था कि प्रत्येक तत्व के परमाणु एक-दूसरे से भिन्न-भिन्न होते हैं, पानी का formula बनाया -
- अ ग््र उ -ग््र

डाल्टन ने यह स्वीकार किया कि पानी एक अणु में हाइड्रोजन और ऑक्सीजन के एक-एक ही परमाणु हो यह आवश्यक नहीं है परन्तु कितने परमाणु हैं यह जानना डाल्टन के लिए संभव नहीं हो पाया । १८१३ में अवोगाड्रो ने इस समस्या का समाधान लिया । अवोगाड्रो के नियम के अनुसार समान तापक्रम एवं समान दबाव पर समान आयतन में गैसों के समान अणु पाये जाते हैं । अब लाहाजिये के प्रयोगों से यह पाया गया कि पानी के बनने के समय २ ग्राम हाइड्रोजन और १६ ग्राम ऑक्सीजन मिलकर १८ ग्राम पानी बनता है । अवोगाड्रो के सिद्धान्त से अगला निष्कर्ष यह निकलेगा कि किसी भी गैस के 1 ग्राम अणु-भार में स्थित अणुओं की संख्या समान होती है । अब चूंकि पानी का ग्राम अणु भार १८ है । ऑक्सीजन का १६ और हाइड्रोजन का 1, अतः यह जाहिर है कि पानी के बनने में जिनमें अणु या परमाणु ऑक्सीजन के चाहिए उससे दुगुने अणु या परमाणु हाइड्रोजन के चाहिए । अतः डाल्टन का सूत्र बदलकर पानी का सूत्र इस प्रकार लिखा जाएगा -

फार्मूला
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अनुक्रम

परमाणु जिसे टूटना नही था
एक ही तवेकी रोटियाँ
किरण, किरण, किरण
इलेक्ट्रॉन की खोज तक
इलेक्ट्रॉन  और क्ष किरणें -- 1
इलेक्ट्रॉन  और क्ष किरणें -- 2
1898 -- 1908 रुदरफोर्ड की प्रयोगशाला में
यह पन्ने मेरी क्यूरी के नाम
परमाणुकी संरचना
क्वांटम सिद्धांत का आरंभ