Saturday, April 21, 2007

यह पन्ने - मेरी क्यूरी के नाम In memory of Marie Curie

यह पन्ने - मेरी क्यूरी के नाम
रेडियो सक्रियता का नाम सुनते ही पहली जो बात दिमाग में आती है वह है रेडियम जिसका अस्पतालों में रेडियो-थिरॅपी से कैंसर का रोग दूर करने के लिए बहुतायत से उपयोग किया जाता है । साथ ही दिमाग में आती हैं श्रीमती मेरी क्यूरी जिन्होंने रेडियम की खोज की - जो विश्व की पहली महिला नोबुल पुरस्कार विजेता हैं - जो उन थोड़े लोगों में से हैं जिन्हें दो बार नोबुल पुरस्कार मिला - जो उन दो बच्चियों की माँ हैं जिनमें से एक इरिन विश्व की दूसरी महिला नोबुल पुरस्कार विजेता हैं और दूसरी लडकी इवा एक अच्छी साहित्यिक । इवा ने मेरी क्यूरी का चरित्र लिखा है जिसे पढ़कर श्री लाल बहादुर शास्त्री को बड़ी स्फूर्ति मिली थी और उन्होंने स्वयं इस पुस्तक का हिन्दी में अनुवाद किया । ऐसी प्रतिभाशालिनी वैज्ञानिक की जीवनी जाने बिना भौतिक शास्त्र की पढ़ाई अधूरी रह जायेगी । इस पुस्तक का यह अध्याय श्रीमती मेरी क्यूरी को समर्पित है ।
रेडियो-सक्रियता के अनुसंधान की कहानी को पढ़ने से यह शिक्षा मिलती है कि प्रकृति का घटनाक्रम तो चलता रहता है लेकिन शरीर की और मन की आँखे खुली रखो तभी प्रकृति के रहस्यों का पता लग सकता है । दूसरी शिक्षा यह मिलती है कि यदि परिश्रम से घबराहट होती हो तो यह सीखने-सीखाने का, ज्ञानार्जन का, आविष्कार का काम छोड़ दो ।
सन्‌ १८९५ में श्री रोण्टेजेन ने क्ष किरणों को पता लगाया (८ नवम्बर, १८९५) (इस दिनांक से लेकर अगले दो वर्षों तक विभिन्न अखबारों में क्ष किरणों के विषय में जो भी व्यंगचित्र, व्यंगकविताएं और व्यंगलेख निकले उन्हें पढ़कर पता चलता है कि पाश्चात्य देशों में विज्ञान किस कदर जन मानस के दिलो दिमाग का एक अभिन्न अंग है । x-ray और antimatter दो ऐसे वैज्ञानिक आविष्कार हैं जिन पर सर्वाधिक व्यंग-साहित्य लिखा गया है । जनवरी १८९६ में जब रोण्टेजेनकी विभिन्न रिपोर्टें प्रकाशित हुई तो एक वैज्ञानिक की आँखे बहुत खुली हुई थी । इनका नाम था बेक्वेरेल। उनके पिता फ्लुरोसेन्स पर काम कर चुके थे और वह स्वयं भी उसी क्षेत्र में काम कर रहे थे । क्ष किरणों की रिपोर्ट में यह उल्लेख था कि जब डिस्चार्ज टयूब में कैथोड किरणें पैदा होती है और उनके कारण टयूब की दिवारों पर हरे रंग का फ्लुरोसेंस प्रकाश पैदा होता है तब उस जगह से, जहाँ फ्लुरोसेंट प्रकाश उत्पन्न हो रहा है, एक दूसरे प्रकार की किरणें भी निकलती हैं जो क्ष किरणें हैं । यह अदृश्य होती हैं और टयूब के बाहर फैल जाती हैं और यदि उनके रास्ते में फोटोग्राफिक प्लेट काले कागज में लपेट कर रखी जाए ताकि उस पर साधारण दृश्य प्रकाश का कोई प्रभाव न पड़े तो भी क्ष किरणें उसे expose कर देती हैं ।अब फ्लुरोसेंस एक ऐसी क्रिया है जो कि कुछ पदार्थों में पाई जाती है । इन पदार्थों को यदि सूर्यप्रकाश में थोड़ी देर रखा जाए तो ये पदार्थ प्रकाश को अपने में सोख लेते हैं । बाद में उन्हें अंधेरे में रखने पर वे थोड़ी देर तक इस सोखे हुए प्रकाश को उत्सर्जित करते हैं जिस कारण वे अंधेरे में भी कुछ देर चमकते हैं । यह उत्सर्जित प्रकाश एक ही रंग का होता है और किस रंग का होगा यह उस पदार्थ की बनावट पर निर्भर करता है । फ्लुरोसेंट पदार्थ को जरा सी देर भी यदि प्रकाश में नहीं रखा जाए तो उससे अंधेरे में भी कोई प्रकाश नहीं निकलेगा ।
बेक्वेरेल ने सोचा कि हो न हो ये फ्लुरोसेंट पदार्थ उत्सर्जन के समय साधारण प्रकाश किरणों के साथ क्ष किरणे भी उत्सर्जित करते हों जिन्हें अदृश्य होने के कारण अब तक नहीं पहचाना गया हो और इसे जाँचने का तरीका भी बड़ा सरल होगा । किसी फ्लुरोसेंट पदार्थ को सूर्यप्रकाश में रखे फिर उसे अंधेरे में रखकर उसके सामने काले कागज में लिपटी एक फोटोग्राफिक प्लेट रख दो । जो दृश्य प्रकाश निकलेगा वह तो काले कागज को पार कर फोटोग्राफिक प्लेट तक नहीं पहुँच सकता लेकिन क्ष किरणे पहुँच कर उसे expose कर सकती हैं और इस प्रकार उनकी उपस्थिति जानी जा सकती है ।
उस जमाने में जितने भी फ्लुरोसेंट पदार्थ बेक्वेरेल को मालूम थे उन सभी पर यह प्रयोग किया गया और निष्कर्ष यह निकला कि किसी भी फ्लुरोसेंट पदार्थ से अदृश्य किरणें नहीं निकलती हैं सिवा दो तीन पदार्थों के -पोटेशियम युरेनियम सल्फेट, सोडियम यूरेनियम सल्फेट, युूरेनियम नाइट्रेट इत्यादि अर्थात्‌ केवल ऐसे ही फ्लुरोसेंट पदार्थों से क्ष किरणें निकलती हैं जिनमें युरेनियम हो । यह रिपोर्ट प्रकाशित हुई और चूंकि यह अभी तक निश्च्िात रूप से नहीं बताया जा सकता था कि यह किरणें और रोण्टेजेन के प्रयोगों में निकलने वाली क्ष किरणे एक ही हैं अतः इन्हें बेक्वेरेल किरणों का नाम दिया गया ।
इसके बाद बेक्वेरेल ने कई प्रयोग युरेनियम के फ्लुरोसेंट यौगिकों पर किए । तब नई बात सामने आई । सूर्यकिरणों को सोखने पर ये पदार्थ फ्लुरोसेंट प्रकाश तो बहुत कम देर तक उत्सर्जित करते हैं लेकिन बेक्बेरेल किरणों का उत्सर्जन कई दिनों तक होता रहता है ।
बेक्सेरेल के प्रयोग होते गए । अचानक ऐसा भी हुआ जब कई दिनों तक आकाश बादलों से ढका होने के कारण युरेनियम के वे नमूने जिन पर प्रयोग होने थे, सूर्यप्रकाश में नहीं रखे गए । सिफ उन्हें काले कागज में लिपटे फोटोग्राफिक प्लेट के पास रखा गया था । बेक्वेरेल के प्रयोगों के मुताबिक इन फोटोग्राफिक प्लेट्स को develop करके देखना एक फिजूल बात थी । फिर भी बेक्वेरेल ने इस संभावना से मुँह नहीं मोड़ा । एक प्लेट को उसने डेवलप कर ही डाला और उसे घोर आश्चर्य हुआ क्योंकि वह प्लेट बेक्वेरेल किरणों से expose हो चुकी थी । इससे यह निष्कर्ष निकला कि बेक्वेरेल किरणों के उत्सर्जन के लिये इन पदार्थों को सूर्यप्रकाश में रखना आवश्यक नहीं है । अर्थात्‌ यह क्रिया फ्लुरोसेंस की क्रिया से कोई नितान्त भिन्न क्रिया है । दो वर्ष बाद श्रीमती मेरी क्यूरी ने इस क्रिया का नाम रखा रेडियो-सक्रियता ।
फिर तो बेक्वेरेल ने ऐसे युरेनियम युक्त पदार्थों पर भी प्रयोग किए जो फ्लुरोसेंट नहीं थे । फिर भी उनमें से अदृश्य किरणें निकलती हुई पाई गई और यह सिद्ध हो गया कि बेक्वेरेल किरणों का उत्सर्जन युरेनियम तत्व का ही एक गुण है । इस उत्सर्जन का फ्लुरोसेंस से कोई संबंध नहीं ।
करीब १८९७ में मेरी क्यूरी ने इन प्रयोगों को आगे चलाया । मेरी क्यूरी का (जिनका नाम था मार्या स्कलोदोवस्का था) जन्म पोलैंड की राजधानी वार्सा के नजदीक एक गांव में ४ जुलाई १८६७ ( 1 ) को हुआ । घर की गरीब परिस्थिति में वार्सा में उनकी पढ़ाई पूरी नहीं हो पा रही थी । अतः पच्चीस वर्ष की उम्र में वह अकेली ही सफर करती हुई पेरिस आई । पेरिस में कभी बच्चे संभालने वाली गवर्नेस का काम करना, कभी टयूशन पढ़ाना आदि उपायों से थोड़ा-थोड़ा धनसंचय कर वे पढ़ती रहीं । इस दौरान उनके आधे से अधिक दिन खाली पेट ही गुजरे । फिर भी पढ़ाई से वे पीछे नहीं हटीं । उनका यह अदम्य विश्र्वास था प्रत्येक मनुष्य कुछ न कुछ कर दिखाने के लिए दुनिया में आता है और उसे कठिन-से-कठिन परिश्रम की परवाह किए बिना वह कर दिखाना चाहिए जिस काम के लिए वह दुनिया में आया है ।
१८९५ में मार्या की शादी पेरी क्यूरी से हुई । पेरी स्वतः भौतिकी के अध्यापक थे । उन्होंने पिझो इलैक्ट्रिसिटी की अर्थात्‌ क्वार्टर क्रिस्टल के आयतों पर एक विशिष्ट रूप से दबाव डालने पर पैदा होने वाले विद्युतीय आवेश की खोज की थी और साथ ही चुम्बकत्व के कुछ आविष्कारों के कारण भी उन्हें मान्यता मिल चुकी थी । फिर भी उनकी गरीबी की परिस्थिति कायम थी और जिस स्कूल में वह पढ़ाते थे वह भी छोटा सा स्कूल था जिसके पास आधुनिक प्रयोगशाला नामक कोई कमरा न था । इसके बावजूद पेरी के प्रयोग चलते रहते थे और मेरी भी एक बच्ची इरीन की माँ बन चुकने पर भी उनका साथ दिया करती थी । साथ ही घर का खर्चा चलाने के लिए एक स्कूल में बच्च्िायों को पढ़ाने का काम भी करती थी । उन पर धुन सवार थी डॉक्टरेट करने की । बेक्वेरेल के प्रयोगों को पढ़ने पर उन्होंने इस नये विषय को अपने प्रयोगों के लिए चुना ।
बेक्वेरेल किरणों के विषय में अब तक यह पता चल चुका था कि इन किरणों के द्वारा वातावरण में स्थित हवा आयनीकृत (ionized) हो जाती है । मेरी ने इस आयनीकरण को (ionization) इलैक्ट्रोस्कोप नाम एक उपकरण द्वारा मापा और इसका उपयोग युरेनियम के किसी भी पदार्थ से निकलने वाली बेक्वेरेल किरणों की प्रखरता (intensity) को जानने के लिए किया । मेरी ने पाया कि हर हालत में किसी भी पदार्थ से निकलने वाले बेक्वेरेल किरणों की प्रखरता (intensity) इस बात पर निर्भर करती है कि उसमें युरेनियम के कितने परमाणु उपस्थित हैं । पदार्थ की किसी भी भौतिक या रासायनिक अवस्था से इसमें कोई अन्तर नहीं पड़ता है । दबाव, गर्म करना, दूसरे रासायनिक यौगिक बनाना आदि किसी भी बात से इन किरणों की प्रखरता में कोई अन्तर नहीं पड़ता है । अर्थात्‌ बेक्वेरेल किरणों का उत्सर्जन युरेनियम के परमाणु का आन्तरिक गुण है और वह सारी बाहरी प्रक्रियाएँ जिनके द्वारा किसी तत्व की भौतिक स्थिति में अन्तर आ सकता है, परमाणु तक पहुँचकर निष्क्रिय हो जाती हैं और उत्सर्जन के गुण को नहीं बदल सकती हैं । अगले प्रयोगों में मेरी को यह भी पता चला कि न केवल युरेनियम के यौगिक बल्कि थोरियम के यौगिक भी बेक्वेरेल किरणों का उत्सर्जन करते हैं और वहाँ भी किरणों की प्रखरता थोरियम के परमाणुओं की संख्या पर निर्भर करती हैं ।
अन्यत्र भी इस प्रक्रिया की उपस्थिति या अनुपस्थिति खोजने की धुन में मेरी ने निश्चय किया कि वे ऐसे प्रत्येक पदार्थ की जाँच करेंगी जिसमें युरेनियम है । ऐसे ही दो अयस्कों या खनिजों (ores) पिचब्लेंड और चार्कोलाइट की जाँच में उन्हें पता चला कि इनमें उपस्थित युरेनियम परमाणुओं की तुलना में उससे निकलने वाले उत्सर्जन की प्रखरता बहुत अधिक है-करीब ४ गुणा अधिक है । ऐसी स्थिति में उनकी तीव्र वैज्ञानिक बुद्धि काम आई । उन्होंने निष्कर्ष निकाला कि हो न हो चार्कोलाइट और पिचब्लेंड में कोई ऐसा तत्व भी है जिसकी अब तक खोज नहीं हुई है लेकिन जिसमें रेडियो सक्रियता के गुण मौजूद हैं । यह कहने के बाद की कोई नया तत्व मौजूद है, यह आवश्यक हो गया कि पिचब्लेंड से उसे अलग कर दुनिया के सामने रखा जाए । इन प्रयोगों में पेरी ने भी हाथ बंटाना आरंभ किया । अप्रैल १८९८ से जुलै १८९८ तक तीन महीनों के लगातार प्रयोगों के बाद मेरी और पेरी क्यूरी ने एक नए तत्व का पता लगाया जो रेडियोसक्रिय था - अर्थात्‌ जिससे बराबर किरणें उत्सर्जित हुआ करती थी जैसे युरेनियम से । इस तत्व के रासायनिक गुण बिस्मथ के गुणों से मिलते हुलते थे । अपनी मातृभूमि की याद में मेरी ने इसका नामकरण किया पोलोनियम । इन्हीं प्रयोगों के दौरान मेरी ने पाया कि पोलोनियम निकालकर बचे हुए पिचब्लेंड में कोई एक रेडियो-सक्रिय-पदार्थ और भी है । दिसम्बर १८९८ तक इस नये तत्व की खोज भी उन्होंने की जिसके गुण बेरियम से मिलते-जुलते हैं । इसे नाम दिया रेडियम । क्ष किरणों की ही तरह रेडियम थिरॅपी के उपकरणों के बिना आज का कोई भी आधुनिक अस्पताल परिपूर्ण नहीं माना जाता है । इतना यह रेडियम महत्वपूर्ण सिद्ध हुआ ।
मेरी और क्यूरी ने पोलोनियम और रेडियम का पता तो लगा लिया लेकिन उसे पिचब्लेंड से अलग करने का काम अभी बाकी ही था । यह चुनौती क्यूरी दंपति ने स्वीकार की ।
तुम्हे यह जानकर आश्चर्य होगा कि मेरी को यह सारे प्रयोग करने के लिये कोई आधुनिक प्रयोगशाला उपलब्ध नहीं थी । पेरी के ही स्कूल के एक छोटे से सीलन भरे गोदाम में मेरी ये प्रयोग किया करती थी । अगले सात आठ वर्षों तक मेरी के प्रयोग ऐसे ही सीलन भरे कमरों में, टीन या खपरैल की टूटी-फूटी शेड के नीचे हुआ करते थे और प्रयोग भी कैसे-कई-कई किलो पिचब्लेंड को अलग-अलग ऍसिडों में घोलना निथारना, छानना, बड़ी-बड़ी कड़ाहियों में उबालना, उबलते हुए मिश्रण को अनवरत रूप से काठ के चम्मचों से चलाते रहना -लेकिन इस परिश्रमों से मेरी और पेरी बराबर जूझते रहे । संयोग से ऑस्ट्रिया की एक कंपनी ने जो पिचब्लेंड से युरेनियम निकालकर उसे शीशे के कारोबार में काम लाती थी, युरेनियम निकले हुए कई टन अयस्क मेरी को मामूली सी कीमत पर बेचना स्वीकार किया । इस पिचब्लेंड पर प्रयोग करते करते चार वर्ष बीत गए । इन चार वर्षों में मेरी और पेरी को जो मेहनत करनी पड़ी उसका अन्दाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि टनों पिचब्लेंड में से अन्ततः १०० ग्राम शुद्ध रेडियम क्लोराइड निकल सका । लेकिन इसकी उत्सर्जन की तीव्रता युरेनियम उत्सर्जन की तीव्रता से 2 x106 गुना अर्थात्‌ बीस लाख गुना अधिक थी ।
मेरी और पेरी क्यूरी ने पाया कि रेडियम से निकलते उत्सर्जन के कारण प्रयोगशाला में रखे शीशे के बर्तन एक हल्की सी फ्लूरोसेंस जैसी ही आभा से चमकते रहते हैं । यह है एक मजे की बात । बेक्वेरेल ने सोचा था कि फ्लूरोसेंस के कारण क्ष किरणें निकलती हैं, और युरेनियम से निकलने वाली किरणें क्ष किरणें ही हैं । बाद में उसने पाया कि युरेनियम से निकलने वाली किरणें क्ष किरणें नहीं हैं । और अब मेरी ने पाया कि फ्लूरोसेंस के कारण यह किरणें नहीं निकलतीं बल्कि न किरणों के कारण फ्लूरोसेंस पैदा होता है ।
पिरियॉडिक टेबुल में ८८वीं जगह पर रेडियम फिट बैठता है । १९०३ के दौरान Andre Deburne ने ८९वीं जगह पर बैठने वाले ऍक्टिनियम की खोज की जो युरेनियम और रेडियम की तरह रेडियो सक्रिय है (अर्थात्‌ उससे उसी प्रकार उत्सर्जन निकलते हैं जिस प्रकार युरेनियम या रेडियम से) । टेबुल में ९०वीं जगह पर फिट बैठता है थोरियम, ९२वीं जगह पर युरेनियम और जगह पर फिट बैठता है थोरियम ९२वीं जगह पर युरेनियम और वीं जगह पर पोलोनियम । ९१वीं जगह पर फिट बैठने वाले प्रोटॅक्टिनियम की खोज करीब १५ वर्षों बाद ऑटो हान ने की (यह भी रेडियो सक्रिय तत्व है ।)
रेडियो सक्रियता की खोज और इसके विषय में बहुतायत से किये गये प्रयोगों के लिये श्री बेक्वेरेल, श्री पेरी क्यूरी और श्रीमती मेरी क्यूरी को सन्‌ १९०३ में भौतिक शास्त्र का नोबल पुरस्कार एकत्रित रूप से दिया गया । नोबल पुरस्कार का वितरण बड़े धूमधाम से किया जाता है । स्वीडन की राजधानी स्टॉक होम में संसार के गण्यमान्य वैज्ञानिकों बुलाया जाता है नोबल पुरस्कार विजेताओं के भाषण होते हैं । उन्हें कई अन्य सम्मान दिए जाते हैं । लेकिन पेरी और मेरी अपने प्रयोगों की धुन में इतना थक चुके थे कि वे स्वतः स्टॉकहोम जाने में असमर्थ रहे । साथ ही अपनी सारी पूंजी प्रयोगों में लगा देने के कारण वे निर्धन भी थे । नोबल पुरस्कार के रूप में मिलने वाले पैसे का उपयोग भी उन्होंने प्रयोगों के नये-नये सामान और उपकरण खरीदने में ही किया ।
मेरी के सामने अभी एक प्रयोग अधूरा ही था । पिचब्लेंड में से उन्होंने रेडियम क्लोराइड तो अलग निकाला था । लेकिन अब उनका ध्येय था शुद्ध रेडियम को अलग निकालना जिसके लिए उन्होंने अगले ८ वर्षों तक कठिन से कठिन प्रयोग किए । इसी दौरान उन्हें मान, प्रतिष्ठा, मिलते गए । लेकिन कुछ ही हद तक । १९०६ में एक तांगे के चपेट में आकर पेरी क्यूरी की मृत्यु हुई । इस समय उनकी बड़ी बच्ची इरीन थी ९ वर्ष की और छोटी बच्ची इवा केवल २ वर्ष की । बेक्वेरेल इस दौरान क्यूरी परिवार के अच्छे मित्र बन चुके थे परन्तु उनका निधन भी १९०८ में आकस्मिक रूप से हुआ ।
जमाना सन्‌ १९०६ का था । मेरी को युनिवर्सिटी में प्राध्यापक के पद पर लेने के विषय में बड़े वाद-विवाद हुए क्योंकि उस जमाने में महिलाओं को फ्रांस जैसे प्रगत देश में भी युनिवर्सिटी में पढ़ाने का काम नहीं करने दिया जाता था । फिर भी उनके नोबल-पुरस्कार की ओर देखकर और संभवतः पेरी की मृत्यु के कारण उन्हें प्राध्यापक के रूप में स्वीकार किया गया । ऐसा ही मौका दुबारा आया १९११ में जब पेरिस की रॉयल अकादमी ऑफ सायन्स ने उन्हें अपना 'फेलो' बनाने से इसलिये इंकार कर दिया कि वे महिला थीं । मेरी का सामना न केवल निर्धनता से था बल्कि रूढ़िवादिता से भी । इस घटना के चार ही महीने पश्चात्‌ जब उस वर्ष के नोबल पुरस्कारों की घोषणा हुई तो उस सूची में फिर एक बार मेरी क्यूरी का नाम था - इस बार रसायनशास्त्र का पुरस्कार एक नये तत्व रेडियम की खोज के लिए ।

इस दौरान रेडियम के औषधि गुणों पर अन्वेषण प्रारंभ हो चुके थे और अस्पतालों में रेडियम थिरॅपी का उपयोग भी किया जाने लगा था । तुम्हें जानकर आश्चर्य होगा कि किसी भी अयस्क से शुद्ध रेडियम निकालने की विधि इतनी कठिन है कि मेरी के बाद आज तक किसी ने दुबारा शुद्ध रेडियम नहीं बनाया । सारी प्रयोगशालाओं में और अस्पतालों में रेडियम ब्रोमाइड का उपयोग किया जाता है ।
मेरी की कहानी यहीं समाप्त नहीं होती और न रेडियम की । फ्रांस की सरकार ने मेरी की अध्यक्षता में रेडियम इंस्टीटयूट की स्थापना की जहां अपने अन्तिम दिनों तक मेरी काम करती रहीं । इसी इंस्टीटयूट में काम करते हुए उनकी वैज्ञानिक पुत्री इरीन की शादी फ्रेडरिक ज्युलियट नाम वैज्ञानिक से हुई । इन दोनों के अन्वेषण का विषय भी था रेडियो सक्रियता - लेकिन मेरी और पेरी से एक कदम आगे । उनका विषय था कृत्रिम रेडियो-सक्रियता । वह तत्व जो प्राकृतिक रूप में रेडियो-सक्रिय नहीं हैं उन्हें कृत्रिम बाहरी उपायों से रेडियो सक्रिय बनाने की विधि दोनों ने खोजी । इसके लिए १९३२ में उन्हें उसी पेरिस अकादमी ने सम्मानित किया जो एक बार मेरी को अपना फेलो बनाने में असमर्थ थे । इस आविष्कार के लिए इरिन और फ्रेडरिक को १९३५ में नोबल पुरस्कार दिया गया । विज्ञान का नोबल पुरस्कार पाने वाली इरीन दूसरी और अन्तिम महिला है ।
यह जानना आवश्यक है कि कृत्रिम रेडियो सक्रियता का महत्व क्योंकर है । रुदरफोर्ड ने रेडियो सक्रियता की व्याख्या (जिसे हम अगले अध्याय में पढ़ेंगे) करते हुए यह बताया कि कोई रेडियो सक्रिय तत्व जब बेक्सेरेल किरणों का उत्सर्जन करता है तो इस प्रक्रिया के दौरान उसका परमाणु भार और परमाणु संख्या बदल जाते हैं । अर्थात्‌ वह तत्व बदलकर दूसरा तत्व बन जाता है । प्रश्न यह है कि यह बेक्वेरेल किरणें क्या हैं, कहां से आती हैं और किस प्रकार एक तत्व से निकलकर उसे दूसरे तत्व में बदल देती हैं लेकिन दूसरी एक बात अधिक गहन है । चूंकि रेडियो-सक्रियता के कारण एक तत्व दूसरे तत्व में बदल जाते हैं, क्या वह संभव नहीं कि किसी एक तत्व को जो प्राकृतिक रूप में रेडियो-सक्रिय नहीं है - बाहरी उपायों से रेडियो सक्रिय बनाया जाए ताकि अपनी इस रेडियो सक्रियता के कारण कुछ किरणें उत्सर्जित करने के बाद वह दूसरे तत्व मं बदल जाए । यानी हम उसी पुरानी काल्पनिक पारसमणी की कहानी पर आ पहुंचते हैं जिसके द्वारा लोहे लोहे को सोना बनाया जा सकता है । इस कल्पना को सही कर दिखाया इरीन और फ्रेडरिक ने । इस प्रकार अन्ततः एक पारसमणी की खोज हुई । यह पारसमणी उस सोने से कई गुना कीमती है जो विश्र्व के तारे लोहे को सोना बनाने पर मिलता ।
जुलाई १९३४ में मेरी क्यूरी की मृत्यु हुई । रेडियम से उत्सर्जित होने वाले किरणों के अत्यधिक संसर्ग से उन्हें ब्लड कैंसर हो गया था । रेडियम को मेरी क्यूरी ने ढूंढकर निकाला । रेडियम ने उन्हें प्रतिष्ठा के सर्वोच्च शिखर पर बैठाया और रेडियम के उत्सर्जन से ही उनकी मृत्यु हुई । इसी रेडियम-उत्सर्जन की सीमित मात्रा से हम आज कैंसर का इलाज करते हैं ।
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