Saturday, May 19, 2012

14 संगणक है स्नेह का खजाना -- हो

संगणक है स्नेह का खजाना

इस मजेदार शीर्षकके पीछे सन १९९७ में घटी एक कहानी है। मायक्रोस़ॉफ्टकी विंडोज ऑपरेटिंग सिस्टम भारतीय बाजारमें आये हुए बस एक-दोन वर्ष गुजरे थे। सरकारी कार्यालयोंमें नई बातें सीखनेके लिये इतना समय बहुत कम यानि बहुत-बहुत कम था। वहाँ अब भी संगणकोंपर डॉस सिस्टम चलती थी। इसी दौरान मेरी नियुक्ति पुणे स्थित महाराष्ट्र सेटलमेंट कमिशनर के पदपर हुई। उन्हीं दिनों केंद्र सरकारने एक  महत्वाकांक्षी योजना बनाई कि ग्रामीण किसानोंके खसरा-खतौनीके रेकॉर्ड (मराठीमें इनका पॉप्युलर नाम   सातबारा-रेकॉर्ड है।) संगणकपर डलवायें ताकि वे इंटरनेटपर  उपलब्ध हों। देशके छः लाख से अधिक गाँव और करोडों किसान। इस काम के लिये केंद्र सरकारने महाराष्ट्र राज्यमें सेटलमेंट कमिशनरको नोडल अधिकारी घोषित किया था और बडी संख्यामें संगणक खरीदनेके लिये बडी रकमका बजेटभी दिया था।  


तबतक इस बडे कार्यालयमें केवल एक संगणक था और वह बॉसके अर्थात मेरे कमरेमें रखा था जिसे छूनेकी अनुमति एकाधको छोडकर किसीको नही थी। इसीलिये उन लोगोंने संगणकके लिये अंधियारे कमरेके भूतकी उपमा नियत की थी। केवल दो-तीन लोग ही संगणकपर काम करना जानते थे। 

बडी संख्यामें संगणक खरीदने हों तो उनका स्पेसिफिकेशन क्या हो, अपनी जरूरतें क्या हैं और उनके लिये कौनसा स्पेसिफिकेशन अधिक उपयोगी होगा, किन-किन बातोंपर गौर करना होगा, इत्यादि बातोंकी जानकारी हमारे वरिष्ठ स्टाफको हो यह आवश्यक था- तभी तो विभिन्न विक्रेताओंकी ऑफर्सकी तुलना और निर्णय समुचित रूपसे लिया जाता। इसलिये मैंने ही पहले सबकी क्लास ले डाली और संगणककी बाबत सबका प्रबोधन किया। स्क्रीन, मूषक (माऊस), की-बोर्ड, स्पीकर्स, मिनी कॅमेरे और मोडेम तक ठीक था --वे सामने दीखते थे, उनकी जानकारी देना सरल था। लेकिन स्पेसीफिकेशन तय करनेकी असली चुनौती  सीपीयूके अंदरूनी भागोंसे आती है। प्रत्येक का काम क्या है, अपने कार्यालयकी आवश्यकता क्या है, प्रोसेसर चिप की स्पीड, हार्डडिस्क और रॅमकी क्षमता,  कार्यालयके संदर्भमें उनका चुनाव, क्षमता और कीमतका तालमेल कैसे बिठाना, विक्रेताके साथ चर्चा में क्या मुद्दे महत्वके होते हैं, प्राइस निगोसिएशन इत्यादि मुद्दे उस प्रबोधनमें शामिल थे। लेकिन जो सबसे महत्वपूर्ण मुद्दा था वह ये कि मायक्रोसॉफ्टने अपनी पुरानी डॉस ऑपरेटिंग सिस्टम की जगह जो नई विंडोज ऑपरेटिंग सिस्टम बाजारमें उतारी थी, उस कारण संगणक-शिक्षा में क्या और कितनी सरलता आ गई थी। इस पूरे प्रशिक्षण के अंतमें मैंने धमाका कर दिया -- कि उसी दिनसे हेड-ऑफिसके हर व्यक्तिको संगणक प्रशिक्षण पूरा करना होगा -- उसे कैसे किया जायगा और मैं प्रतिदिन किस तरह इस प्रशिक्षणकी मॉनिटरिंग करनेवाली हूँ।


मेरे पहले लेक्चरके कुछ अंश यहाँ उद्धृत करना सार्थक होगा -- 


सीपीयूमें एक मदर-बोर्डपर संगणकका मस्तिष्क (प्रोसेसर चिप - या विवेचक), रॅम और संग्राहक (हार्ड-डिस्क) फिट किये जाते हैं। रॅम और हार्ड-डिस्ककी क्षमता मेगा अथवा गेगा बाईट में गिनते हैं। विवेचक किस स्पीडसे गणित या अन्य काम करनेवाला है, यह भी महत्वपूर्ण है -- इस स्पीडको मेगाहर्टझ में मापते हैं। मदर बोर्डपर संगणकका पडदा, की-बोर्ड, माऊस जोडनेकी जगहें या स्लॉट्स हैं -- क्या वे अपने कामके लिये काफी हैं। संगणकको  सीडी मार्फत जानकारी देनेके लिये (उस जमानेमे फ्लॉपी थी --अब प्रयोग नही करते) सीडी चलानेवाली यंत्रणा अर्थात सीडी ड्राइव्ह और नई सीडी लिखनेके लिये सीडी राइट करनेवाला ड्राइव्ह भी चाहिये (उन दिनों ये दोनों ड्राइव्ह अलग होते थे), फिर उनकी क्षमता क्या हो इत्यादि प्रश्न भी महत्वपूर्ण हैं।

इन सबके अलावा  मदर बोर्ड पर बायोस नामक एक और चिप होती है। संगणकको ऑन करनेपर विवेचक (प्रोसेसर चिप) सबसे पहले बायोसपर पहूँचता है।  उसे कुछ आरंभिक सूचनाएँ चाहिये होती हैं जो वह बायोससे पढता हैं।  जैसे -- पॉवर-सप्लाय जाँचो, की-बोर्ड जूडा है या नही, पडदा काम कर रहा है कि नही, इत्यादि 

BIOS = "Basic Input Output System"। 
Processor == "brain" (मस्तिष्क )
इन सूचनाओंके आधार पर विवेचक संगणकको तैयार करता है, बायोस की सबसे आखरी सूचना उसे बताती है कि अब उसे अपनी ऑपरेटिंग सिस्टम कहाँसे पढनी है (साधारणतया हार्ड डिस्कसे लेकिन कभी कभी अलग सीडी या सर्वरसे) इसके बाद बायोस तो अलग बैठ जाती है और अगले काम ऑपरेटिंग सिस्टमके माध्यमसे होते हैं।

संगणकके विकास का रहस्य इस प्रोसेसर चिपमें है। चिपोंपर रिसर्च करनेवालोंने एक पद्धति तय की है जिसके अनुसार हर
नई प्रकारकी चिपको एक नंबर दिया जाता है। संगणकके लिये १९८० के बाद जो चिप्स बनीं उनमें सर्वप्रिय सिरीज थी -
८०८६,
८०१८६ (यह मार्केटमें नही आई) 
८०२८६
८०३८६
८०४८६
80586 या पेंटियम (जो आजकल प्रयोगमें है)

प्रोसेसर चिपकी हर नई आवृत्ती का अर्थ है अधिक स्पीड, अधिक जानकारी रखने और अधिक काम करनेकी  क्षमता। 


संगणकके कामके दो भाग हैं -- यंत्र - अर्थात हार्डवेअर - जैसे  की-बोर्ड -- अगर यह न हो तो हम संगणकको सूचना कैसे देंगे। दूसरा भाग है तंत्र - अर्थात संगणक को क्रमवार बताना कि कोई काम सीढी-दर-सीढी कैसे किया जाता है।

पहले जब संगणकमें विवेचक चिपकी क्षमता काफी कम थी तब उसपर किये जानेवाले कामके हजारो छोटे छोटे हिस्से बाँटकर उन्हें एक एक खास तंत्रके मार्फत करना पडता था -- यही मोटामोटी ऑपरेटिंग सिस्टम और प्रोग्रामिंग की संकल्पना थी और यह एक सरखपाऊ काम हुआ करता था। प्रोग्रामिंग किये बगैर संगणकको सूचना देना  संभव नही था। इसके लिये उच्चशिक्षा लेकर प्रोग्रामर बनना पडता था। और प्रत्येक अलग कामके लिये अलग प्रोग्राम लिखना पडता था। उदाहरण स्वरूप, एकबार मुझे जरूरत पडी कि जब भी मैं चाहूँ, संगणक रॅण्डम आँकडे चुनकर मुझे दस गुणाकारके गणितं कागजपर प्रिंट करके दे सके। मैं कोई प्रोग्रामिंग तज्ज्ञ नही थी लेकिन प्रोग्रमिंगकी पद्धतिसे परिचित थी, सो वह खास प्रोग्राम तैयार करनेमें मुझे पांच दिन लगे लेकिन कोई सधा हुआ प्रोग्रामर होता तब भी उसे 8-10 घंटे लग सकते थे। यह  प्रोग्रमिंग संगणकको उसकी अलग भाषामें समझाना पडता था (सूचनाओंके माध्यमसे) बेसिक, कोबोल, फोरट्रॉन, सी, आदि कुछ खास संगणकीय भाषाएँ उस जमानेमें सीखनी पडती थीं । तभी आप प्रोग्रामिंग कर सकते थे और तभी संगणकसे काम करवा सकते थे।


चिपकी विकसित कडी अर्थात 80286 बनी तो ऑपरेटिंग सिस्टम बनानेवाली कंपनियोंने (खासकर मायक्रोसॉफ्टने) क्या किया? उन्होंने प्रोग्रामिंग की कई बातोंको प्रमाणबद्ध कर दिया और ऑपरेटिंग सिस्टम में ही उनका  समावेश किया। इस प्रकार चिपकी बढी हुई क्षमताके कारण उसी अनुपातमें रॅम और हार्ड डिस्ककी क्षमता बढाना भी संभव हुआ। इस प्रकार जो बडी ऑपरेटिंग सिस्टम बनी वह आवश्यक भी थी और सस्ती भी। इसी कारण वह सामान्य-जन के प्रयोग के लिये अत्यंत सुविधाजनक थी।

इस बाबत मैं एक उदाहरण देती हूँ। किसी जमानेमें कपडे सिलाना एक बडा कार्यक्रम हुआ करता था। पहले कपडा  खरीदो, फिर दरजी आकर नापं लेगा, दोनोंकी चर्चासे तय होगा कि फॅशन और स्टाइल कौनसी होगी, फिर दरजी कच्ची सिलाई कर ट्रायलके लिये ले आयगा, आपके ओके करनेपर पक्की सिलाई करेगा। हमारे बचपनमें एक महिनेकी निश्चिंती हुआ करती थी। लेकिन फिर बॅगीका जमाना आया, तो सबके लिये एकही नापके ढीलेढाले कपडोंकी फॅशन आई और काम सरल हो गया । धडाधड रेडीमेड कपडोंका धंदा बढ गया। संगणकके हार्डवेअर और सॉफ्टवेअर दोनोंके साथ यही हुआ।

इतने बडे लेक्चरके बाद मुख्य मुद्दा यही निकला कि चिप तथा ऑपरेटिंग सिस्टमके विकासके कारण प्रोग्रामिंग-तंत्रका एक बडा हिस्सा अब यंत्रका भाग (ऑपरेटिंग सिस्टम) बन गया। जो तंत्र ग्राहकके करनेके लिये बचा वह सरलसे सरल होता गया। और अब यह स्थिती आ गई थी कि सरकारी कार्यालयोंके सामान्य व्यवहार या घरेलू  उपयोग के लिये प्रोग्रामिंग करनेकी आवश्यकता पूर्णतः समाप्त हुई। अब संगणक के प्रयोगके लिये सामान्य-जन या सामान्य शासकीय कार्यालयोंमें कोई प्रोग्रामिंग सीखे बिना संगणकका उपयोग करना संभव हो गया।


इसका यह अर्थ नही कि संगणकमें प्रोग्रामिंग सीखनेकी आवश्यकता पूरी तरह समाप्त हो गई। अभी भी वैज्ञानिक काम या बडी सिस्टिम्स संभालनेके लिये,या संगणकसे कुछ खास काम करवानेके लिये  प्रोग्रामिंगकी आवश्यकता होती है और उसे प्रोग्रमिंगके तज्ञ लोग ही कर सकते हैं।


सेटलमेंट कमिशनर कार्यालयमें बडी संख्यामें संगणक खरीदनेके बाद अधिकसे अधिक लोग झटपट संगणक सीखें यह मुझे जरूरी लगा। इसीलिये मैंनै पूरा इतिहास समझाया कि कैसे संगणककी यात्रा तंत्रकी ओरसे यंत्रकी ओर हुई औऱ कैसे यह सब विकसित प्रोसेसर चिप के कारण हुआ था। दूसरे यंत्रोंमें यंत्र और तंत्रका मिलान  इस प्रकार सरलता से नही हो सकता और अधिकतर यंत्रोंमें बिलकुल नही। संगणकमें ये हो चुका है, इसलिये अब यह चिंता नही कि प्रोग्रामिंग कौन करे। अब हर कोई संगणकका उपयोग सीख सकता है। इसके बाद मैंने आदेश भी जारी कर दिया कि अबसे हर व्यक्ति रोज एक से दोन घंटे संगणकपर बितायेंगे ताकि जो भी न्यूनतम ऑपरेशन्स सीखने आवश्यक हैं वे सीखे जा सकें। 


यह सब करते हुए एकही उद्देश मेरे मनमें था कि ऑफिसकी कार्यक्षमता बढे। एक आदेश मैंने और भी जारी किया कि यदि कोई चाहे कि उनके बच्चे भी संगणक सीख लें तो उन बच्चोंके लिये हर दिन दो घंटे अनुमति रहेगी। इसके पीछे भी ये विचार था कि बच्चोंके बहाने बडोंमें भी संगणक सीखनेका उत्साह बढेगा। काफी हदतक इसका फायदा भी हुआ। फिर भी कई लोगोंके मनमें अनुत्साह और चिडचिडापन भी था कि हमारी अच्छी-भली नौकरीमें यह क्या बला है। खासकर जो कर्मचारी 55 वर्षकी आयु पार कर चुके थे और रिटायर होनेके पास थे --उनका कहना था कि अब उनपर यह नया सीखनेका बोझ क्यों। 


महिला कर्मचारी तो हकसे मेरे पास आकर यह प्रश्न पूछती थीं कि यह सीखनेका उन्हें क्या फायदा। मैंने बताया कि आप अपने स्कूल जानेवाले नाती-पोतोंको धमाके साथ बता सकती हैं कि देखो मैंने तुमसे पहले संगणक सीखा
है। खइयोंको यह कल्पना भा गई। कुछ दिनों  बाद कोई नानी-दादी मुझे आकर बताने लगी कि घरके छोटे बच्चोंके साथ संगणकके विषययपर उनका कैसा अच्छा संवाद हुआ। और फिर एक दिन वह घटना घटी।


एक महिला कर्मचारी का बेटा अचानक प्रमोशन पा गया और झटके पट अमरीका रवाना भी हो गया। हफ्तेभरमें उधर उसने और इधर इन लोगोंने संगणक खरीद लिया, उनपर मिनि कॅमेरे बैठाये गये ओर एक-दूसरेको देखते हुए उनकी संगणक-बातचित शुरु हुई। इसके अलावा ई-मेल पर भी बडी-छोटी बाते लिख भेजनेका सिलसिला आरंभ हुआ।    

अगले  दिन ऑफिसमें सुबह ही वे आकर मुझसे मिलीं । बोलीं - मॅडम, अब यदि कोई भी संगणक सीखनेमें नाखूष हो तो मुझे बताइये - संगणक क्यों सीखें इस बाबत अब मैं सबको समझा सकती हूँ । दूर परदेश गये बालबच्चोंको रोज आँख भरकर देख पाना, बिलकुल पाससे लगे ऐसे उनसे गपशप करना और उनपर स्नेह बरसाना --ये सब कितने सुखकी बात है, यह मैं उन्हें बता सकती हूँ। मैं यह सब सहजतासे कर पाई क्योंकि  यहाँ मैं संगणक का उपयोग सीख चुकी थी।
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Monday, May 14, 2012

24 संगणक है अकाउंट क्लर्क -- हो

संगणक है अकाउंट क्लर्क
पैसेका हिसाब सबको रखना पडता है। कितना खर्च हुआ और कितनी आमदनी हुई, किस कामपर खर्च हुआ और कहाँसे आय आ रही है इत्यादि । अकाउण्टिंग इतना बडा शास्त्र है कि इसे सीखनेके लिये चार वर्षका पूरा कोर्स ही है -- बीकॉम का।




संगणक म्हणजे अकाउंट क्लार्क 
(पुस्तकाप्रमाणे तपासले -done)
पैशाचे हिशोब ठेवणे आपल्याला नेहमीच गरजेचे असते. किती खर्च केला आणि किती आवक झाली. कुठे खर्च केला आणि कुठून आवक झाली. 

एका माणसाने त्याचा एका दिवसाचा हिशोब असा लिहिला ---
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अकाउंटिंग पढनेवाले लोग जानते हैं कि अकाउंटिंगके दो प्रमुख सूत्र हैं डबल एण्ट्री और लेजर। डबल एण्ट्रीका सूत्र कहता है कि प्रत्येक व्यवहार स्वतंत्ररूपसे दो जगह और दो अलग पद्धतियोंमें लिखा जायगा ।

यदि पैसे देकर सामान खरीदा तो पैसेबाबत (कॅश) रजिस्टरमें  खर्चा लिखा जायगा, लेकिन स्टॉक रजिस्टरमें  उतने सामानकी बढोतरी पैसे और वस्तू दोनों स्वरूपोंमें लिखी जायगी। इसके विपरीत 
सामान बेचकर पैसे मिलें तो कॅश रजिस्टरमें आवक लेकिन स्टॉक रजिस्टरमें निर्गत लिखा जायगा।


बँकसे पैसे निकालो तो कॅश रजिस्टरमें आमद लेकिन बँक-व्यवहारके रजिस्टरमें खर्च  दिखेगा, इसके विपरीत  बँकेमें पैसे जमा करनेपर कॅश रजिस्टरमें खर्च और बँक रजिस्टरमें आमद लिखी जायगी।




दिनभरकी सारी आमद रकमोंका और सारी खर्च रकमोंका अलग-अलग जोड लगाते हैं। दोनोंका मेल बैठे तो  हिसाब ठीक लिखा गया। मेल नही बैठे तो  हर लिखे गये व्यवहारकी जाँचपडताल कर गलती ढूँढनी पडेगी। 


एका सरल औऱ आदर्श हिसाब-चोपडीका पन्ना ऐसा दिखेगा ----

बाँई ओर आमदनीका  पन्ना ----
तारीख,  अनुक्रमांक,  कारण व वर्णन, आमदका प्रकार, आमदनी, बँकका नाम, 

स्टॉक-रजिस्टरका पन्ना, कॅश, बँक, स्टॉक, टोटल

दाईं ओर खर्चका पन्ना ----
तारीख, अनुक्रमांक, कारण व वर्णन, खर्चका प्रकार, खर्च, बँकका नाम, 

स्टॉक-रजिस्टरका पन्ना, कॅश, बँक, स्टॉक, टोटल


दूसरा सिद्धांत है लेजरका। हमारे पास आने-जानेवाला सामान अलग-अलग प्रकारका होता है। सरलसी घरकी खरीदारी भी देखो तो गेहूँ, चावल, चीनी, साबुन, तेल, गॅस, आदि कई तरहके सामान हैं। कार्यालयमें भी बिजली, पानी, पेट्रोल, स्टेशनरी, वेतन, आदि कई प्रकारके मुद्दोंपर खर्च हैं। लेकिन जमा-खर्चके चोपडेमें  सबके लिये एक ही शब्द होता है -- स्टॉक । इसीलिये अलग लेजर रजिस्टर रखा जाता है जिसमें एक मुद्दे के लिये कुछ पन्ने छोडे जाते हैं। इस  रजिस्टरकी एण्ट्री ऐसी दिखेंगी --  


स्टॉक-वर्णन 

           आया                                                    गया
तारीख, OB, नई आवक, टोटल(CB)               OB, नई जावक, टोटल(CB) 

कॅश रजिस्टर तारीखवार लिखा जाता है। लेजर उस-उस सामानके घटने-बढनेके अनुसार लिखा जाता है और महीनेके अंतमे हर सामानका हिसाब  करनेपर उस महीनेके कुल कामका अंदाजा लिया जा सकता है।  


यदि अकौंट (हिसाब) सही रखना हो तो अकाउंट क्लर्कको यह सब लिखना पडता है। तुमने नोट किया होगा कि एक  व्यवहार पर अकाउंट क्लार्कको चार जगह एण्ट्री लेनी पडती है।


लेकिन संगणकपर गाणिती काम करनेवाला सॉफटवेअर अर्थात मायक्रोसॉफट एक्सेल या कोई अन्य स्प्रेडशीट लेकर संगणकपरही रजिस्टर लिखनेसे सॉर्ट की सुविधाके कारण लेजर रजिस्टर अपनेआप तैयार हो जाता है । 

अनुक्रमांक, कारण व वर्णन, रकम, आवक या जावक, कॅश बँक या स्टॉक, सामानाचे स्वरुप
1                  2                  3               4                          5                             6
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कुल


इस रजिस्टरमें दिनभर घटनेवाले व्यवहारोंकी एण्ट्री की जायगी। दिनके अंतमें संगणकसे कहा जायगा कि सारी एण्ट्रीजको सॉर्ट करो - पहले  स्तंभ 4 के अनुसार, उसके अंतर्गत  स्तंभ 5 के अनुसार और उसके अंतर्गत स्तंभ 6 के अनुसार. 

यह सूचना पानेके बाद संगणक सारी आवक एण्ट्रीजको अलग करेगा -- हमें केवल उनका प्रिंट आउट लेकर  कॅश रजिस्टरके बायें पन्नेपर चिपकाना है। इसी प्रकार जावक एण्ट्रीज भी अलग निकलती हैं जिनका प्रिंट आउट दायें पन्नेपर चिपकाना है। 

सारी आवक एण्ट्रीज सॉर्ट करते हुए संगणक सभी कॅश एण्ट्रीज एकसाथ, बँक एण्ट्रीज एकसाथ और स्टॉक एण्ट्रीज एकसाथ -- इस प्रकारसे सॉर्टिंग करता है। उन्हेंभी बँकके नामसे या स्टॉकके स्वरूपके अनुसार एकत्रित किया जा सकता है। उनका प्रिंट आउट लेकर लेजर रजिस्टरपर चिपकाया जा सकता है। यही क्रम जावक रजिस्टरके साथ भी दुहराया जाता है। इस प्रकार थोडीही एण्ट्रीजके लिखनेपरभी संगणककी सॉर्टिंगकी सुविधाके कारण कॅश रजिस्टर तथा लेजर रजिस्टरकी एण्ट्रीज पूरी हो जाती हैं।  
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जिन कार्यालयोंमें अभीभी कागज-रजिस्टर-हार्डकॉपी ही सरल और जानीपहचानीसी लगती है वहाँ कॅश रजिस्टर और लेजरको पूर्णरूपसे बंद नही करते, लेकिन ऊपर बताये तरीकेसे सारी एण्ट्रीजको संगणकपर लेकर, सॉर्टिंगकी सुविधासे रजिस्टरकी पध्दतीसे प्रिंट लेकर रजिस्टर तैयार कर लेते हैं। लेकिन जो प्रगत कार्यालय हैं वहाँ इन कागजी रजिस्टरोंको पूरी तरहसे बंद कर सारे व्यवहार संगणकपर ही रखे जाते हैं।

ऊपर जो सरलसा उदाहरण बताया वह किसी छोटे व्यापारमें होनेवाले जमाखर्च और उसका ब्यौरा रखनेवाले अकाउंट क्लार्ककी सुविधा के लिये है। उनके सामान और व्यापारका विवरणभी बदलता रहता है। सरकारी कार्यालयोंमें अकाउंट रजिस्टर्स अलग तरीकेसे होते हैं फिर भी मूल संकल्पना वही लागू है -- कि जो भी आँकडें हैं, उन्हे सारणीके सॉफ्टवेअर पर लिखो ताकि सॉर्टिंगकी सुविधासे उनकी पुनर्रचना एवं गणितीय व्यवहार सुगम हों। साथही सरकारी कामकाजमें विवरण प्रायः वही रहता है।किसीभी टिपिकल सरकारी कार्यालयके अकाउंट क्लार्कके सबसे सरखपाऊ काम हैं वेतन-बिल, ट्रेझरीको भेजे जानेवाले अन्य बिल औप उनका व्यवस्थापन. यह काम संगणकद्वारा सरल हो जाता है।


वेतन-बिलमें कई विवरण होते हैं  जैसे :-
वेतन (substative pay), छुट्टी-वेतन (leave pay), डी.ए. एरियर्स (महँगाई भत्तेके एरियर्स), HRA, CLA, Transport Allowance, इत्यादि. इनके अलावा deduction के ब्यौरेमें GPF, GIS, HR allowances, इत्यादी विवरण होते हैं।  वे कई वर्षोंतक कायम रहते हैं। संगणक सारणी बनाते समय इस बातका फायदा उठाया जाता है। वेतन-बिल हर महिने बनाना पडता हे। इसलिये यह काम तीन जगह विभाजित किया जाता है। एक जगह मास्टर फाईलमें मास्टर-डेटा-बेस एकत्रित किया जाता है - जैसे प्रत्येक कर्मचारीकी जानकारी. महाराष्ट्र के मंत्रालयका उदाहरण देखें तो वहाँ कुल 18 मुद्दोंपर हर कर्मचारीकी जानकारी है -- उसका नमूना इस भागके अंतमें है।


दूसरी जगह  सारे नियमोंका विचार कर तैयार किये गये गणितीय सूत्र लिखकर उनके अनुसार संगणकसे गणित करवानेके लिये आवश्यक सॉफ्टवेअर संगणककी भाषामें लिखकर रखे जाते हैं। जैसे -- सूत्र लिखा गया कि HRA = बेसिक + ग्रेडपे का 30 प्रतिशत। या दूसरा  सूत्र हुआ -- अमुक स्लॅबका ट्रान्सपोर्ट अलावंस अमुक है । ये सारे सूत्र संगणकको उसकी भाषामें सिखाये जाते हैं ताकि ये गणितीय सूत्र लागू कर वेतन-बिलोंका पूरा गणित संगणक खुद कर सके।


ये दोनों काम किसी एक्सपर्ट ग्रुपको सौंपे जाते हैं। मास्टर डाटा या सूत्रोंकी फाईलोंमें कोई बारबार हेरफेर न कर सके इसलिये भी ये आवश्यक है। 
तिसरी जगह है प्रत्यक्ष वेतन-बिल बनानेवाला क्लार्क। प्रत्येक महिनेमें कौन किस पदपर था उसकी छुट्टियाँ कितनी थीं, प्रमोशन या इन्क्रीमेंट थे या नही, ये सारे ब्यौरे दर्ज कर सभी कर्मचारियोंका एकत्रित वेतन-बिल बनाना यही अकाउंट क्लार्कका नियमित काम है। इस काममें आँकडोंकी बडी माथापच्ची करनी पडती है । लेकिन अब बात अलग है। अकाउंट क्लार्क कर्मचारियोंके उस उस महीने से संबंधित सारे ब्यौरे चढाकर संगणगसे कहता है कि अधिक जानकारी तुम मास्टर फाइलसे उठाओ और फिर सूत्रोंकी फाइलसे सूत्र देखकर हिसाब करो और अन्तिम आँकडे मेरे स्तंभमें लिख दो।  


मंत्रालयके एक टिपिकल विभागकी मास्टर फाइल और वेतन- बिलका पन्ना नमूने के लिये यहाँ दिये हैं।


यह व्यवस्था हुई वेतन-बिल तैयार करनेकी। लेकिन मंत्रालयका ही उदाहरण आगे खींचते हैं। बिल तैयार करनेवाले विभागके साथ साथ अन्य दो विभागभी इस काममें शामिल हैं -- प्रत्यक्षतः पे ऍण्ड अकाउंट्स ऑफिस और अप्रत्यक्षतः वित्त विभाग।


वित्त विभागकी ओरसे प्रत्येक विभागके लिये एक वार्षिक खर्चकी मर्यादा निश्चित की जाती है। इसे अप्रोप्रिएशन बजेट कहते हैं। इस उपलब्ध रकमसे किस किस मुद्देपर क्या क्या खर्च किस क्रमसे हुआ इसकी जानकारी संबंधित विभागके एक अप्रोप्रिएशन बिल रजिस्टरमें लिखी जाती है।अकाउंट क्लार्क पहले इसेभी स्वत:ही हिसाब लगाकर हाथसे लिखते थे (अब भी लिखते हैं। ) इस रजिस्टरमें निम्न पद्धतिसे  मासिक सारांश लिखा जाता है-- 
पगार बिल, प्रवास भत्ता बिल, मेडिकल बिल, ऑफिस खर्चका बिल, अग्रिम देयकोंका बिल इत्यादि. (एक प्रकारसे यह भी लेजर की तरह है।)

यही जानकारी वित्त विभागका क्लर्क  अपने रजिस्टरमें अलगसे  रखता है। फिर दोनोंकी जानकारीमें अंतर होनेपर हरेक फाईल दस बार इधरसे उधर घूमेगी। ये सारी परेशानियाँ रोकनेके लिये अब वित्त विभागामें प्रत्येक विभागकी जानकारी संगणकपर निम्नलिखित रूपसे तैयार करते हैं ताकि कालांतरमें दो जगह रजिस्टर लिखनेकी त्रासदी कम होगी और जानकारीमें मेल रहेगा। अभी यह पध्दति पूरी लागू नही है क्योंकि केवल वित्त विभागके ही रजिस्टर संगणकपर चढाना आरंभ हुआ है, जबकि अन्य विभाग अभीभी हस्तलिखित और स्वयं गणित करके रजिस्टर लिख रहे हैं। दोनोंकी सिस्टमोंमें एकवाक्यता होकर सिध्द होना कि सारे दोष मिट गये हैं, इसके लिये अभी कुछ कालावधी चाहिये।


जिन प्रगत कार्यालयोंमें इस प्रकारसे संगणकीय पध्दत सिध्द व प्रस्थापित हो जाती है वहाँ इन सारणियोंके अंतमें एक वाक्य लिखा जाता है -- 
This is a computer generated document - hence no signature is needed.
लेकिन मंत्रालयमें (या किसी भी सरकारी कार्यालयमें) चूँकि यह अभी सिद्ध हो रही है इसलिये शायद यह लिखना पडेगा -- 
This is a computer generated document - hence signature is a must.
कोई इसे जोक कह सकता है लेकिन जबतक वरिष्ठ अधिकारी स्वयं तसल्ली नही कर लेते तबतक यह सावधानी रखना उचित है। 


तैयार बिलोंकी जाँच-पडताल और प्रत्यक्ष पेमेंटका काम पे ऍण्ड अकाउंट ऑफिस करता है। उनके पास आनेवाले हर बिलपर एक टोकन नंबर दिया जाता है। किसी विभागसे आये बिल और अदा की हूई अथवा किसी शक के कारण वापस किये बिलोंमें मेल रखनेके लिये यही पुराने समयसे चली आ रही पध्दति है। अब इन टोकन नंबरोंके आधारसे संगणकपर सारणी बनाकर रखनेसे एक ओर अकाउंट क्लर्कका काम कम हो गया तो दुसरी ओर पे ऍण्ड अकाउंटके टोकन सारणीसे वित्त विभागके पास जानकारी पहुँचती है और उनके अप्रोप्रिएशन रजिस्टरमें उस विभागके विषयमें अपनेआप एण्ट्री हो जाती है । इस त्रिस्थली यात्राके कारण प्रत्येक बिलका रेकॉर्ड खुद विभागमें रहता है और पे ऍण्ड अकाऊंट्सरूपी दूसरे रास्तेसे वित्त विभाग के पास पहँचता है। इस प्रकार जाँच-पडताल सरल परन्तु निःसंदेह सही होती है।


अब तो देशभरमें सभी जिलोंमें ट्रेझरी ऑफिसका कामभी इसी तरहसे संगणकपर डाला जा रहा है। इस प्रकार संगणककी सारणी-लेखनकी सुविधासे हर स्तरपर अकाऊंट क्लर्कका काम सरल और संक्षिप्त हो जाता है। हर वर्षके अंतमें हिसाबका मेल बैठानेके लिये स्टाफके कई क्लर्कोंका जो काफी समय खर्च होता रहता है वह बच सकता है। यद्यपि कई कार्यालयोंमें यह प्रक्रिया पूर्णरूपेण सिध्द और प्रस्थापित नही हुई है फिर भी जूतक कदम उस दिशामें बढते रहेंगे तबतक प्रगति का मार्ग प्रशस्त है। 


छोटे व्यापारी,छोटी कंपनियाँ भी इसी प्रकारसे हर महीने अपने वेतन-बिल और अन्य हिसाब-किताब रखनेवाले टॅली अथवा तत्सम अन्य सॉफटवेअर का प्रयोग करते हैं जो सारणि-सिद्धांतपर आधारित हैं। 
इन सबोंसे आर्थिक व्यवहारोंमें काफी सरलता आ गई है। यहाँ तक कि शेअर बाजारोंके लिये सरकारने खूदही नियम कर दिया कि बडी कंपनियोंके शेअरके खरीद-विक्रीके सभी व्यवहार संगणकके मार्फतही किये जायेंगे। इसके लिये डीमॅटकी सुविधाको कंपल्सरी कर दिया। 


सारांश यही कि हर प्रबुद्ध अकाउंट क्लर्कको सीख लेना चाहिये कि कैसे संगणकको ही अकाउंट क्लर्क बनाकर उससे काम करवायें।
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