किरण-किरण-किरण
किरण में किरण - क्ष किरण । इनकी कथा अति मनोहारी है और उपयोग अति गुणकारी और जमाने को इनकी पहचान तो इतनी अधिक हो गई है कि जैसे हम हिन्दी में पढ़ते हैं - क से कमल वैसे ही अंग्रेजी में पढ़ते हैं x से x-ray यानी क्ष किरण । इन क्ष किरणों की खोज दिसम्बर १८९५ में जर्मन वैज्ञानिक रोण्टजेन ने की ।
तुम्हें तो मालूम ही होगा कि हमारी सदी का सबसे बड़ा पुरस्कार है नोबेल पुरस्कार । यह सन् १९०१ में प्रारंभ हुआ । और पहला नोबेल पुरस्कार मिला क्ष किरणों की खोज के लिये - रोण्टजेन को ।
कल्पना करो सन् १८९० की और उस समय चल रहे निर्वात् नली के प्रयोगों की । निर्वात् नली में अत्यंत कम दबाव होने पर ऋणाग्र से कॅथोड किरणे निकलती हैं । करीब १८५८ में किए गए प्लूकर के प्रयोगों के बाद से ही यह विवाद विषय बना रहा कि यह कॅथोड किरणें आखिर क्या हैं ।
क्रुक्सने कई प्रयोग किए इन कॅथोड किरणों की प्रकृति जानने के लिए और यह प्रस्थापित करना चाहा कि कॅथोड किरणें वास्तव में तेजी से चलने वाले गैस अणु हैं जो दूसरे गैस अणुओं से टकराने के कारण प्रकाश उत्पन्न करते हैं और निर्वात् नली के शीशे की दीवारों से टकराने पर फ्लूरोसेंस । क्रुक्स का सिद्धांत १८७९ में प्रकाशित हुआ । परन्तु एक साल के अन्दर-अन्दर १८८० में गोल्डस्टीन ने सिद्ध कर दिया कि कॅथोड किरणें गैस अणु नहीं हो सकते । यह सिद्ध करने के लिए उसने प्रयोग द्वारा दिखाया कि यदि कॅथोड किरणों के चलने की दिशा दो विभिन्न स्थितियों में विभिन्न हो - अर्थात् एक बार देखने वाले की सीध में हो और दूसरी बार उससे समकोण बनती हुई (perpendicular) तो जो Doppler effect दिखाई पड़ना चाहिए वह न.जर नहीं आता । १८८४ में फिर एक बार स्यूस्टर नाम वैज्ञानिक ने यही बात उठाई और बताया कि जिन अणुओं से कॅथोड किरणें टकराते हैं उन अणुओं से यदि प्रकाश निकलता हो तो चूंकि उन अणुओं की गति अत्यंत कम है, अतः हॉल्पर प्रभाव का न.जर न आना स्वाभाविक ही है । १८८८४ और १८९० के बीच के प्रयोगों से स्यूस्टर ने यह भी प्रमाणित किया कि कॅथोड किरणों के आवेश और मात्रा का अनुपात (e/m) किस रेंज में होगा । उसकी गणनाओं के अनुसार e/m का न्यूनतम मान ५x१०६ coulmbs per kg और महत्तम मान १०८ coulmbs per kg होगा । कुक्स की तरह उसका भी कहना था कॅथोड किरणें अति वेगवान् आवेश युक्त गैस अणुओं से बने हैं परन्तु स्यूस्टर के प्रयोगों से e/m की ठीक-ठीक माप नहीं हो सकीं ।
दूसरी ओर हर्ट्ज्ञ जैसे वैज्ञानिक यह मान रहे थे कि कॅथोड किरणें प्रकाश ही की तरह कोई किरणें हैं । १८८३ में प्रयोग करते हुए हर्टज्ञ ने यह सिद्ध करना चाहा कि कॅथोड किरणों के उत्पन्न होने के साथ-साथ निर्वात नली में एक अत्यंत क्षीण विद्युत धारा भी निर्माण होती है जिसकी दिशा इत्यादि कॅथोड किरणों की दिशा से बिल्कुल अलग होती है । हालांकि यह सिद्ध हो चुका था कि कॅथोड किरणें चुम्बकीय क्षेत्र में मुड़ जाती हैं फिर भी कुछ वैज्ञानिक यह मानने को तैयार नहीं थे कि कॅथोड किरणें- प्रकाश किरणों से अलग हो सकती है या किसी वस्तु की (यानी अणुओं की) बनी हो सकती है । १८९१ में हर्टज्ञ और लेनार्ड ने और एक प्रयोग किया जिसमें निर्वात् नली के धनाग्र के छोर पर एक अत्यंत पतली अर्थात् ०.०००२६५ cm मोटी अल्युमिनियम की प्लेट लगाई । कॅथोड किरणें इस प्लेट को पार कर बाहर आ सकती है । इस प्रकार कॅथोड किरणों के निर्वात् नली से बाहर निकलने का उपाय भी बन गया । लेनार्ड ने सिद्ध किया कि इस प्रकार बाहर सामान्य दबाव में आने वाली कॅथोड किरणें हवा में अधिक से अधिक ९cm की दूरी तय कर सकती हैं । लेनार्ड ने यह मुद्दा उपस्थित किया कि चूंकि छोटे से छोटा परमाणु अर्थात् हाइड्रोजन परमाणु भी इस तरह की अल्युमिनियम की प्लेट को पार कर बाहर नहीं निकल सकता जब कि प्रकाश तरंग या विद्युत चुम्बकीय तरंगे पार कर सकती है अतः यह कॅथोड किरणें विद्युत चुम्बकीय तरंग ही है ।
इसके आगे पेरिन और थॉमसन ने सन् १८९४ से १८९७ के दौरान प्रयोग किए और स्युस्टर के तरीकों को दुहराते हुए अन्य प्रयोगों द्वारा कॅथोड किरणों के e/m की माप की । इस माप से थॉमस ने १८९७ में यह प्रतिपादन किया कि कॅथोड किरणों की मात्रा अत्यंत कम है और इनकी उपस्थिति इस बात की द्योतक है कि परमाणु का खण्डन हो सकता है और निर्वात् नली के प्रयोगों में परमाणु का एक अत्यंत छोटा अर्थात् करीब दो हजारवां हिस्सा परमाणु से अलग निकल जाता है । यही नहीं, थॉमसन ने यह भी प्रतिपादन किया प्रत्येक परमाणु में इस प्रकार ऋण विद्युत से आवेशित और अत्यंत सूक्ष्म मात्रा वाले (अर्थात् परमाणु की मात्रा से दो हजारवां हिस्सा मात्रा वाले) कण होते हैं जिन्हें इलैक्ट्रान का नाम दिया गया और यह इलैक्ट्रान कॅथोड किरणों के रूप में बाहर आते हैं ।
इस प्रकार तुम समझ गये होंगे कि निर्वात् नली के प्रत्येक प्रयोग के पीछे एक ही प्रश्न था - कॅथोड किरणे क्या हैं ? ऊपर जो नाम बताये अर्थात् प्लूकर, क्रुक्स, लेनार्ड, पेरिन, इ. यह सब उदाहरण स्वरूप हैं । परन्तु ऐसे प्रयोग और कितनी ही प्रयोगशालाओं में चल ही रहे थे । इन्हीं में एक थी रोण्टजेन की प्रयोगशाला । यह दिसम्बर १८९५ की घटना है (अर्थात् थॉमसन के इलैक्ट्रान की खोज के पहले) । रोणटजेन तब बुर्झबर्ग चुनिव्हर्सिटी में रेक्टर थे । उन्होंने देखा कि एक अंधेरे कमरे में निर्वात् नली के बाहर काफी अन्तर पर रखी हुई एक कूट की चकती पर जिस पर किसी कारणवश एक प्लूरासेंट पदार्थ - बेरियम प्लॅटिनोसायनाईड का लेप चढ़ा हुआ था, उसी प्रकार से चमकने लगी जिस प्रकार निर्वात् नली के अन्दर शीशे की दीवारें । दिसम्बर १८९५ और मार्च १८९६ के दौरान अर्थात् ४ ही महीना में रोण्टजेनने हजारो प्रयोग किए और अत्यंत महत्वपूर्ण निष्कर्ष पाए । संक्षेप में उनके निष्कर्ष इस प्रकार से थे ---
1. निर्वात् नली से कुछ किरणें निकलती हैं जिनकी उपस्थिति जानने का सबसे सरल उपकरा है फ्लरोसेंट पदार्थ का लेप पढ़ाया हुआ गत्ते का टुकड़ा । इन किरणों को रोण्टजेन ने x-ray या क्ष किरण कहा ।
2. चूंकि लेनार्ड के प्रयोग में निर्वात् नली से बाहर निकलने वाली कॅथोड किरणें सामान्य दबाव पर हवा में करीब ९ cm चल सकती है जबकि यह किरणें अनिरूद्ध गति से हवा में काफी दूर तक चली जाती हैं अतः स्पष्ट है कि यह किरणें कॅथोड किरणों से भिन्न हैं ।
3. कॅथोड किरणों की तरह यह किरणें चुम्बकीय क्षेत्र से विस्थापित नहीं होती । अतः इन्हें प्रकाश की तरह कोई विद्युत चुम्बकीय तरंग होना चाहिए ।
4. यह किरणें कागज कूट या धातु के पतले टुकड़ों को पार कर सकती हैं । इसी प्रकार यह पानी और प्रायः सभी द्रव पदार्थों को पार कर सकती हैं । शरीर के मांस को भी पार कर सकती है अतः इनसे हड्डियों की परछाई या फोटो साफ-साफ लिये जा सकते हैं ।
5. साधारण तथा पदार्थ में इनका absorption (शोषण) पदार्थ के घनत्व पर निर्भर करता है । परन्तु रोण्टजेन ने अपनी टिप्पणी में यह लिखा रखा है कि शीशे के टुकड़े, अल्युमिनियम के टुकड़े और कॅल्साईट के टुकड़े का घनत्व करीब-करीब समान होते हुए भी क्ष किरणों का शोषण कॅल्साईट में अत्यधिक है (इसका कारण है कैल्शियम की ऍटमिक संख्या का अधिक होना जो तब रोण्टजेन को मालूम नहीं था)
6. कॅथोड किरणों के शीशे से टकराने के कारण क्ष किरणों की उत्पत्त्िा होती है । यही कॅथोड किरणे शीशे के सिवा अन्य पदार्थों से टकराये (उदा. अल्युमिनियम की खिड़की जैसी लेनार्ड के प्रयोग में थी) तो भी क्ष किरणे उत्पन्न होती हैं ।
7. क्ष किरणों की intensity घटने में वही inverse square law लागू होता है जो प्रकाश किरण में भी लागू है । अर्थात् जैसे जैसे ヒाोत से पर्दे की दूरी बढ़ती है, क्ष किरणों की चमक (अर्थात् उससे फ्लूरोसेंट पर्दे पर पैदा होने वाली चमक) दूरी के वर्ग के अनुपात में घटती जाती है ।
8. रोण्टजेन को कई प्रयोगों के बाद भी क्ष किरणों का परावर्तन आवर्तन या व्यतिकरण कर पाने में सफलता नहीं मिली । साथ ही उनमें पोलरायझेशन का प्रभाव भी नहीं है । इस कारण रोण्टजेन ने अनुमान लगाया कि क्ष किरणे - transverse waves न होकर longitudinal waves होंगी । यह बाद में सिद्ध हुआ कि रोण्टजेन को जो बाते देखने को नहीं मिली उनका असली कारण था क्ष किरणों की अति सूक्ष्म तरंग लम्बाई वास्तव में क्ष किरणें भी प्रकाश किरणों की तरह transverse waves ही हैं ।
9. रोण्टजेन ने पाया कि धातु की casting में यदि कोई joints या cracks रह गये हो तो क्ष किरणों द्वारा उनकी फोटो ली जा सकती है । इस प्रकार metal casting की testing के लिये क्ष किरणों का उपयोग बड़ी सरलता से किया जा सकता है ।
इसी प्रकार रोण्टजेन ने अन्य कई प्रयोग किए और इस मामले में महत्वपूर्ण निष्कर्ष निकाले की क्ष किरणें वातावरण को किस प्रकार आयनीकृत करती हैं । क्ष किरणों की (तीव्रता) मापने का यह भी एक सर्वमान्य तरीका है ।
रोण्टजेन की खोज का उपभोग जितनी तेजी से हुआ उतनी तेजी से किसी और का न हुआ होगा । रोण्टजेन ने अपने प्रयोग के विवरण के साथ अपने हथेली के ढांचे का फोटो भी छपवाया था ८ नवम्बर १८९५ को और क्ष किरणों का प्रयोग कर टूटे हुए हाथ की परीक्षा करके हॉक्टोरॉने जो पहला प्लास्टर किया वह २० जनवरी १८९६ में । इसी प्रकार metal casting को तोड़कर देखे बिना उसके cracks जानने के लिए भी क्ष किरणों का तत्काल प्रयोग हुआ ।
तुम्हें शायद ऐसा लगे कि क्ष किरणों की यह खोज तो महज एक संयोग था - न रोण्टजेन निर्वात् नली के बाहर रखे फ्लूरोसेंट कूट पर चमक देखता और न क्ष किरणों की खोज होती । लेकिन मजे की बात तो यह कि जो बात रोण्टजेन के देखने में आई वह और भी बड़े-बड़े वैज्ञानिकों के देखने में आई थी । १८८० में गोल्डस्टीन के एक प्रयोग का निष्कर्ष प्रकाशित हुआ था जो इस प्रकार है--
निर्वात् नली में फ्लूरोसेंट का लेप चढ़ाये पर्दे जगह-जगह इस प्रकार रखे जाते हैं कि कॅथोड किरणें उन तक सीधे नहीं पहुंच सके परन्तु शीशे से टकराकर इधर-उधर छिटकने वाले कॅथोड किरण उन तक पहुँच सके । इस प्रकार व्यवस्था करने पर पर्दे फ्लूरोसेंट प्रकाश से चमक उठते हैं ।
१८९४ में थॉमसन् ने अपनी डायरी में लिखा था कि निर्वात् नली से कई फीट दूर रखे गये एक शीशे की टयूब की दीवारें भी फ्लूरोसेंस से चमक उठी ।
इसी प्रकार लेनार्ड के प्रयोग में भी अल्युमिनियम की खिड़की पर कॅथोड किरणें टकराने से क्ष किरणे बनती हैं (आजकल इसी उपाय के क्ष किरणें बनाई जाती हैं) फिर भी इनमें से कोई वैज्ञानिक इस नई घटना को परख नहीं सका । ख्याल रहे कि लेनार्ड और थॉमसन दोनों स्वयं माने हुए वैज्ञानिक थे और उनके आविष्कारों के लिये उन्हें क्रमशः १९०५ और १९०६ में नोबेल पुरस्कार भी मिला है ।
क्ष किरणों की खोज की कहानी से हमें शिक्षा मिलती है कि वैज्ञानिक अविष्कारों के लिये आँखे बहुत खुली होनी चाहिए और बुद्धि भी । नई घटना को पकड़ने की दृष्टि जिसमें हो और उस घटना का महत्व समझने की बुद्धि जिसमें हो वही सफल वैज्ञानिक होगा ।
तो अब आओ ऐसे ही और तीन सफल वैज्ञानिकों की कहानी पढ़ें जिन्हें सन् १९०३ का नोबेल पुरस्कार दिया गया ।
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