इस मजेदार शीर्षकके पीछे सन १९९७ में घटी एक कहानी है। मायक्रोस़ॉफ्टकी विंडोज ऑपरेटिंग सिस्टम भारतीय बाजारमें आये हुए बस एक-दोन वर्ष गुजरे थे। सरकारी कार्यालयोंमें नई बातें सीखनेके लिये इतना समय बहुत कम यानि बहुत-बहुत कम था। वहाँ अब भी संगणकोंपर डॉस सिस्टम चलती थी। इसी दौरान मेरी नियुक्ति पुणे स्थित महाराष्ट्र सेटलमेंट कमिशनर के पदपर हुई। उन्हीं दिनों केंद्र सरकारने एक महत्वाकांक्षी योजना बनाई कि ग्रामीण किसानोंके खसरा-खतौनीके रेकॉर्ड (मराठीमें इनका पॉप्युलर नाम सातबारा-रेकॉर्ड है।) संगणकपर डलवायें ताकि वे इंटरनेटपर उपलब्ध हों। देशके छः लाख से अधिक गाँव और करोडों किसान। इस काम के लिये केंद्र सरकारने महाराष्ट्र राज्यमें सेटलमेंट कमिशनरको नोडल अधिकारी घोषित किया था और बडी संख्यामें संगणक खरीदनेके लिये बडी रकमका बजेटभी दिया था।
तबतक इस बडे कार्यालयमें केवल एक संगणक था और वह बॉसके अर्थात मेरे कमरेमें रखा था जिसे छूनेकी अनुमति एकाधको छोडकर किसीको नही थी। इसीलिये उन लोगोंने संगणकके लिये अंधियारे कमरेके भूतकी उपमा नियत की थी। केवल दो-तीन लोग ही संगणकपर काम करना जानते थे।
बडी संख्यामें संगणक खरीदने हों तो उनका स्पेसिफिकेशन क्या हो, अपनी जरूरतें क्या हैं और उनके लिये कौनसा स्पेसिफिकेशन अधिक उपयोगी होगा, किन-किन बातोंपर गौर करना होगा, इत्यादि बातोंकी जानकारी हमारे वरिष्ठ स्टाफको हो यह आवश्यक था- तभी तो विभिन्न विक्रेताओंकी ऑफर्सकी तुलना और निर्णय समुचित रूपसे लिया जाता। इसलिये मैंने ही पहले सबकी क्लास ले डाली और संगणककी बाबत सबका प्रबोधन किया। स्क्रीन, मूषक (माऊस), की-बोर्ड, स्पीकर्स, मिनी कॅमेरे और मोडेम तक ठीक था --वे सामने दीखते थे, उनकी जानकारी देना सरल था। लेकिन स्पेसीफिकेशन तय करनेकी असली चुनौती सीपीयूके अंदरूनी भागोंसे आती है। प्रत्येक का काम क्या है, अपने कार्यालयकी आवश्यकता क्या है, प्रोसेसर चिप की स्पीड, हार्डडिस्क और रॅमकी क्षमता, कार्यालयके संदर्भमें उनका चुनाव, क्षमता और कीमतका तालमेल कैसे बिठाना, विक्रेताके साथ चर्चा में क्या मुद्दे महत्वके होते हैं, प्राइस निगोसिएशन इत्यादि मुद्दे उस प्रबोधनमें शामिल थे। लेकिन जो सबसे महत्वपूर्ण मुद्दा था वह ये कि मायक्रोसॉफ्टने अपनी पुरानी डॉस ऑपरेटिंग सिस्टम की जगह जो नई विंडोज ऑपरेटिंग सिस्टम बाजारमें उतारी थी, उस कारण संगणक-शिक्षा में क्या और कितनी सरलता आ गई थी। इस पूरे प्रशिक्षण के अंतमें मैंने धमाका कर दिया -- कि उसी दिनसे हेड-ऑफिसके हर व्यक्तिको संगणक प्रशिक्षण पूरा करना होगा -- उसे कैसे किया जायगा और मैं प्रतिदिन किस तरह इस प्रशिक्षणकी मॉनिटरिंग करनेवाली हूँ।तबतक इस बडे कार्यालयमें केवल एक संगणक था और वह बॉसके अर्थात मेरे कमरेमें रखा था जिसे छूनेकी अनुमति एकाधको छोडकर किसीको नही थी। इसीलिये उन लोगोंने संगणकके लिये अंधियारे कमरेके भूतकी उपमा नियत की थी। केवल दो-तीन लोग ही संगणकपर काम करना जानते थे।
मेरे पहले लेक्चरके कुछ अंश यहाँ उद्धृत करना सार्थक होगा --
सीपीयूमें एक मदर-बोर्डपर संगणकका मस्तिष्क (प्रोसेसर चिप - या विवेचक), रॅम और संग्राहक (हार्ड-डिस्क) फिट किये जाते हैं। रॅम और हार्ड-डिस्ककी क्षमता मेगा अथवा गेगा बाईट में गिनते हैं। विवेचक किस स्पीडसे गणित या अन्य काम करनेवाला है, यह भी महत्वपूर्ण है -- इस स्पीडको मेगाहर्टझ में मापते हैं। मदर बोर्डपर संगणकका पडदा, की-बोर्ड, माऊस जोडनेकी जगहें या स्लॉट्स हैं -- क्या वे अपने कामके लिये काफी हैं। संगणकको सीडी मार्फत जानकारी देनेके लिये (उस जमानेमे फ्लॉपी थी --अब प्रयोग नही करते) सीडी चलानेवाली यंत्रणा अर्थात सीडी ड्राइव्ह और नई सीडी लिखनेके लिये सीडी राइट करनेवाला ड्राइव्ह भी चाहिये (उन दिनों ये दोनों ड्राइव्ह अलग होते थे), फिर उनकी क्षमता क्या हो इत्यादि प्रश्न भी महत्वपूर्ण हैं।
इन सबके अलावा मदर बोर्ड पर बायोस नामक एक और चिप होती है। संगणकको ऑन करनेपर विवेचक (प्रोसेसर चिप) सबसे पहले बायोसपर पहूँचता है। उसे कुछ आरंभिक सूचनाएँ चाहिये होती हैं जो वह बायोससे पढता हैं। जैसे -- पॉवर-सप्लाय जाँचो, की-बोर्ड जूडा है या नही, पडदा काम कर रहा है कि नही, इत्यादि
BIOS = "Basic Input Output System"।
Processor == "brain" (मस्तिष्क )
इन सूचनाओंके आधार पर विवेचक संगणकको तैयार करता है, बायोस की सबसे आखरी सूचना उसे बताती है कि अब उसे अपनी ऑपरेटिंग सिस्टम कहाँसे पढनी है (साधारणतया हार्ड डिस्कसे लेकिन कभी कभी अलग सीडी या सर्वरसे) इसके बाद बायोस तो अलग बैठ जाती है और अगले काम ऑपरेटिंग सिस्टमके माध्यमसे होते हैं।
संगणकके विकास का रहस्य इस प्रोसेसर चिपमें है। चिपोंपर रिसर्च करनेवालोंने एक पद्धति तय की है जिसके अनुसार हर नई प्रकारकी चिपको एक नंबर दिया जाता है। संगणकके लिये १९८० के बाद जो चिप्स बनीं उनमें सर्वप्रिय सिरीज थी -
८०८६,
८०१८६ (यह मार्केटमें नही आई)
८०२८६
८०३८६
८०४८६
80586 या पेंटियम (जो आजकल प्रयोगमें है)
प्रोसेसर चिपकी हर नई आवृत्ती का अर्थ है अधिक स्पीड, अधिक जानकारी रखने और अधिक काम करनेकी क्षमता।
संगणकके कामके दो भाग हैं -- यंत्र - अर्थात हार्डवेअर - जैसे की-बोर्ड -- अगर यह न हो तो हम संगणकको सूचना कैसे देंगे। दूसरा भाग है तंत्र - अर्थात संगणक को क्रमवार बताना कि कोई काम सीढी-दर-सीढी कैसे किया जाता है।
पहले जब संगणकमें विवेचक चिपकी क्षमता काफी कम थी तब उसपर किये जानेवाले कामके हजारो छोटे छोटे हिस्से बाँटकर उन्हें एक एक खास तंत्रके मार्फत करना पडता था -- यही मोटामोटी ऑपरेटिंग सिस्टम और प्रोग्रामिंग की संकल्पना थी और यह एक सरखपाऊ काम हुआ करता था। प्रोग्रामिंग किये बगैर संगणकको सूचना देना संभव नही था। इसके लिये उच्चशिक्षा लेकर प्रोग्रामर बनना पडता था। और प्रत्येक अलग कामके लिये अलग प्रोग्राम लिखना पडता था। उदाहरण स्वरूप, एकबार मुझे जरूरत पडी कि जब भी मैं चाहूँ, संगणक रॅण्डम आँकडे चुनकर मुझे दस गुणाकारके गणितं कागजपर प्रिंट करके दे सके। मैं कोई प्रोग्रामिंग तज्ज्ञ नही थी लेकिन प्रोग्रमिंगकी पद्धतिसे परिचित थी, सो वह खास प्रोग्राम तैयार करनेमें मुझे पांच दिन लगे लेकिन कोई सधा हुआ प्रोग्रामर होता तब भी उसे 8-10 घंटे लग सकते थे। यह प्रोग्रमिंग संगणकको उसकी अलग भाषामें समझाना पडता था (सूचनाओंके माध्यमसे) बेसिक, कोबोल, फोरट्रॉन, सी, आदि कुछ खास संगणकीय भाषाएँ उस जमानेमें सीखनी पडती थीं । तभी आप प्रोग्रामिंग कर सकते थे और तभी संगणकसे काम करवा सकते थे।
चिपकी विकसित कडी अर्थात 80286 बनी तो ऑपरेटिंग सिस्टम बनानेवाली कंपनियोंने (खासकर मायक्रोसॉफ्टने) क्या किया? उन्होंने प्रोग्रामिंग की कई बातोंको प्रमाणबद्ध कर दिया और ऑपरेटिंग सिस्टम में ही उनका समावेश किया। इस प्रकार चिपकी बढी हुई क्षमताके कारण उसी अनुपातमें रॅम और हार्ड डिस्ककी क्षमता बढाना भी संभव हुआ। इस प्रकार जो बडी ऑपरेटिंग सिस्टम बनी वह आवश्यक भी थी और सस्ती भी। इसी कारण वह सामान्य-जन के प्रयोग के लिये अत्यंत सुविधाजनक थी।
इस बाबत मैं एक उदाहरण देती हूँ। किसी जमानेमें कपडे सिलाना एक बडा कार्यक्रम हुआ करता था। पहले कपडा खरीदो, फिर दरजी आकर नापं लेगा, दोनोंकी चर्चासे तय होगा कि फॅशन और स्टाइल कौनसी होगी, फिर दरजी कच्ची सिलाई कर ट्रायलके लिये ले आयगा, आपके ओके करनेपर पक्की सिलाई करेगा। हमारे बचपनमें एक महिनेकी निश्चिंती हुआ करती थी। लेकिन फिर बॅगीका जमाना आया, तो सबके लिये एकही नापके ढीलेढाले कपडोंकी फॅशन आई और काम सरल हो गया । धडाधड रेडीमेड कपडोंका धंदा बढ गया। संगणकके हार्डवेअर और सॉफ्टवेअर दोनोंके साथ यही हुआ।
इतने बडे लेक्चरके बाद मुख्य मुद्दा यही निकला कि चिप तथा ऑपरेटिंग सिस्टमके विकासके कारण प्रोग्रामिंग-तंत्रका एक बडा हिस्सा अब यंत्रका भाग (ऑपरेटिंग सिस्टम) बन गया। जो तंत्र ग्राहकके करनेके लिये बचा वह सरलसे सरल होता गया। और अब यह स्थिती आ गई थी कि सरकारी कार्यालयोंके सामान्य व्यवहार या घरेलू उपयोग के लिये प्रोग्रामिंग करनेकी आवश्यकता पूर्णतः समाप्त हुई। अब संगणक के प्रयोगके लिये सामान्य-जन या सामान्य शासकीय कार्यालयोंमें कोई प्रोग्रामिंग सीखे बिना संगणकका उपयोग करना संभव हो गया।
इसका यह अर्थ नही कि संगणकमें प्रोग्रामिंग सीखनेकी आवश्यकता पूरी तरह समाप्त हो गई। अभी भी वैज्ञानिक काम या बडी सिस्टिम्स संभालनेके लिये,या संगणकसे कुछ खास काम करवानेके लिये प्रोग्रामिंगकी आवश्यकता होती है और उसे प्रोग्रमिंगके तज्ञ लोग ही कर सकते हैं।
सेटलमेंट कमिशनर कार्यालयमें बडी संख्यामें संगणक खरीदनेके बाद अधिकसे अधिक लोग झटपट संगणक सीखें यह मुझे जरूरी लगा। इसीलिये मैंनै पूरा इतिहास समझाया कि कैसे संगणककी यात्रा तंत्रकी ओरसे यंत्रकी ओर हुई औऱ कैसे यह सब विकसित प्रोसेसर चिप के कारण हुआ था। दूसरे यंत्रोंमें यंत्र और तंत्रका मिलान इस प्रकार सरलता से नही हो सकता और अधिकतर यंत्रोंमें बिलकुल नही। संगणकमें ये हो चुका है, इसलिये अब यह चिंता नही कि प्रोग्रामिंग कौन करे। अब हर कोई संगणकका उपयोग सीख सकता है। इसके बाद मैंने आदेश भी जारी कर दिया कि अबसे हर व्यक्ति रोज एक से दोन घंटे संगणकपर बितायेंगे ताकि जो भी न्यूनतम ऑपरेशन्स सीखने आवश्यक हैं वे सीखे जा सकें।
यह सब करते हुए एकही उद्देश मेरे मनमें था कि ऑफिसकी कार्यक्षमता बढे। एक आदेश मैंने और भी जारी किया कि यदि कोई चाहे कि उनके बच्चे भी संगणक सीख लें तो उन बच्चोंके लिये हर दिन दो घंटे अनुमति रहेगी। इसके पीछे भी ये विचार था कि बच्चोंके बहाने बडोंमें भी संगणक सीखनेका उत्साह बढेगा। काफी हदतक इसका फायदा भी हुआ। फिर भी कई लोगोंके मनमें अनुत्साह और चिडचिडापन भी था कि हमारी अच्छी-भली नौकरीमें यह क्या बला है। खासकर जो कर्मचारी 55 वर्षकी आयु पार कर चुके थे और रिटायर होनेके पास थे --उनका कहना था कि अब उनपर यह नया सीखनेका बोझ क्यों।
महिला कर्मचारी तो हकसे मेरे पास आकर यह प्रश्न पूछती थीं कि यह सीखनेका उन्हें क्या फायदा। मैंने बताया कि आप अपने स्कूल जानेवाले नाती-पोतोंको धमाके साथ बता सकती हैं कि देखो मैंने तुमसे पहले संगणक सीखा
है। खइयोंको यह कल्पना भा गई। कुछ दिनों बाद कोई नानी-दादी मुझे आकर बताने लगी कि घरके छोटे बच्चोंके साथ संगणकके विषययपर उनका कैसा अच्छा संवाद हुआ। और फिर एक दिन वह घटना घटी।
एक महिला कर्मचारी का बेटा अचानक प्रमोशन पा गया और झटके पट अमरीका रवाना भी हो गया। हफ्तेभरमें उधर उसने और इधर इन लोगोंने संगणक खरीद लिया, उनपर मिनि कॅमेरे बैठाये गये ओर एक-दूसरेको देखते हुए उनकी संगणक-बातचित शुरु हुई। इसके अलावा ई-मेल पर भी बडी-छोटी बाते लिख भेजनेका सिलसिला आरंभ हुआ।
अगले दिन ऑफिसमें सुबह ही वे आकर मुझसे मिलीं । बोलीं - मॅडम, अब यदि कोई भी संगणक सीखनेमें नाखूष हो तो मुझे बताइये - संगणक क्यों सीखें इस बाबत अब मैं सबको समझा सकती हूँ । दूर परदेश गये बालबच्चोंको रोज आँख भरकर देख पाना, बिलकुल पाससे लगे ऐसे उनसे गपशप करना और उनपर स्नेह बरसाना --ये सब कितने सुखकी बात है, यह मैं उन्हें बता सकती हूँ। मैं यह सब सहजतासे कर पाई क्योंकि यहाँ मैं संगणक का उपयोग सीख चुकी थी।
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